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प्रतिष्ठा हुई। किन्तु शोधकों की तरह यह मानने को मैं प्रस्तुत नहीं कि वैदिक इन्द्र के आधार पर पौराणिक कृष्ण की कल्पना खड़ी की गयी। कृष्ण अपने युग के पुरुषोत्तम थे; उन का व्यक्तित्व बुद्धिवाद और आनन्द का समन्वय था। इन्द्र की ही तरह अहं या आत्मवाद का समर्थन करने पर भी कृष्ण की उपासना में समरसता नहीं, अपितु द्वैतभावना और समर्पण ही अधिक रहा। मिलन और आनन्द से अधिक वह उपासना विरहोन्मुख ही बनी रही। और होनी भी चाहिए, क्योंकि इस का सम्पूर्ण उपक्रम जिन पुराणवादियों के हाथ में था वे बुद्धिवाद से अभिभूत थे। सम्भवतः इसीलिए यह प्रेममूलक रहस्यवाद विरहकल्पना में अधिक प्रवीण हुआ। पौराणिक धर्म का दार्शनिक स्वरूप हुआ मायावाद। मायावाद बौद्ध अनात्मवाद और वैदिक आत्मवाद के मिश्र उपकरणों से सङ्गठित हुआ था। इसीलिए जगत् को मिथ्या―दुःखमय मान कर सच्चिदानन्द की जगत् से परे कल्पना हुई। विश्वात्मवादी शिवाद्वैत की भी कुछ बातें इसमें ली गयीं। आनन्द और माया उन्हीं की देन थी। बुद्धिवाद को यद्यपि आगमवादियों की तरह अविद्या मान लिया था―

अख्यात्युल्लसितेषु, भिन्नेषु भावेषु बुद्धिरित्युच्यते

―तथापि विवेक से आत्मनिरूपण के लिए मायावाद के प्रवर्तक श्रीगौडपाद ने मनोनिग्रह का उपाय बताया था―

दुःखं सर्वमनुस्मृत्य कामभोगान्निवर्तयेत्। (माण्डूक्यकारिका ४३)