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कामभोग से निवृत्त होने के लिए दुःखभावना करने का ही उन का उपदेश नहीं था। किन्तु वे मानसिक सुख को भी हेय समझते थे―

भास्वादयेत्सुखं तत्र निस्सङ्गः प्रज्ञया भवेत्।

( माण्दृक्यकारिका ४५)

आनन्द सत्-चित् के साथ सम्मिलित था, परन्तु है यह प्रज्ञावाद―बुद्धि की विकल्पना। मायातत्व को आगम से ले कर उसे रूप ही दूसरा दिया गया। बुद्धिवाद की दर्शनों में प्रधानता थी, फिर तो आचार्य ने बौद्धिक शून्यवाद में जिसे पाण्डित्य के बल पर आत्मवाद की प्रतिष्ठा की वह पहले के लोगों से भी छिपा नहीं रहा। कहा भी गया―

मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बौद्धमैव हि।

महायान और पौराणिक धर्म ने साथ-साथ बौद्ध उपासकसम्प्रदाय को विभक्त कर लिया था। फिर तो बौद्धमत शून्य से ऊब कर सहज आनन्द की खोज में लगा। अधिकांश बौद्ध ऊपर कहे हुए कृष्णसम्प्रदाय की द्वैतमूला भक्ति में सम्मिलित हुए। और दूसरा अंश आगमों का अनुयायी बना उस समय आगमों में दो विचार प्रधान थ। कुछ लोग आत्मा को प्रधानता दे कर जगत् को, 'इदम्' को 'अहम्' में पर्यवसित करने के समर्थक थे और वे शैवागमवादी कहलाये। जो लोग आत्मा की अद्वयता को शक्ति तरङ्ग जगत् में लीन होने की साधना मानते थे वे शाक्तागमवादी