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व्यक्तिगत आत्मवाद की ओर झुका कर शरीर को वज्र की तरह अप्रतिहतगतिशाली बनाने के लिए तथा साम्पत्तिक स्वतन्त्रता के लिए रसायन बनाने में लगाया। बौद्ध विज्ञानवादी थे। पूर्व के ये विज्ञानवादी ठीक उसी तरह व्यक्तिगत स्वार्थों के उपासक रहें जैसे वर्तमान पश्चिम अपनी वैज्ञानिक साधना में सामूहिक स्वार्थों का भयंकर उपासक है। आगमवादी नाथ सम्प्रदाय के पास हठयोग क्रियाएँ थीं और उत्तरीय श्रीपर्वत बना कामरुप। फिर तो चौरासी सिद्धों की अवतारणा हुई। हाँ, इन दोनों की परम्परा प्रायः एक है, किन्तु आलम्बन में भेद है। एक शून्य कह कर भी निरञ्जन में लीन होना चाहता है और दूसरा ईश्वरवादी होने पर भी शून्य को भूमिका मात्र मान लेता है। रहस्यवाद इन कई तरह की धाराओं में उपासना का केन्द्र बना रहा। जहाँ बाह्य आडम्बर के साथ उपासना थी वहीं भीतर सिद्धान्त में अद्वैत भावना रहस्यवाद की सूत्रधारिणी थी। इस रहस्य भावना में वैदिक काल से ही इन्द्र के अनुकरण में अद्वैत की प्रतिष्ठा थी। विचारों का जो अनुक्रम ऊपर दिया गया है, उसी तरह वैदिक काल से रहस्यवाद की अभिव्यक्ति की परम्परा भी मिलती है।

ऋग्वेद के दसवें मण्डल के अड़तालीसवें सूक्त तथा एक सौ उन्नीसवें सूक्त में इन्द्र की जो आत्मस्तुति है, वह अहंभावना तथा अद्वैतभावना से प्रेरित सिद्ध होता है। अहं भुवं वसुनः पूर्थ्यपसिरह धनामि से जयामि शश्वतः तथा अहमस्मि महामहो