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नहीं है। इस प्रेम में पर का दार्शनिक मूल है स्व को अस्वीकार करना। फिर तो बृहदारण्यक के यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति के अनुसार वह प्रेम विरह सापेक्ष ही होगा। किन्तु सिद्धों ने आगम के बाद रहस्यवाद की धारा अपनी प्रचलित भाषा में, जिसे वे सन्ध्या-भाषा कहते थे, अविच्छिन्न रक्खी और सहज आनन्द के उपासक बने रहे।

अनुभव सहज मा मोल रे जोई।
चोकीहि विभुका जइसो तइसो होई॥
जइसने आछिले स वइसन अच्छ।
सहज पथिक जोई भान्ति माहो वास॥ (नारोपा)

वे शैवागम की अनुकृति ही नहीं, शिव की येागेश्वर मूर्ति की भावना भी आरोपित करते थे।

नाडि शक्ति दिर धश्यि खदे।
अनहा डमरू बाजए वीर नादे॥
कछू कपाली यौगी पइठ अचारे।
देह न अरी विहरए एकारें॥ (कण्हपा)

इन आगमानुयायी सिद्धों में आत्म-अनुभूति स्वापेक्ष थी। परोक्ष विरह उनके समीप न था। वह प्रेम कथा स्वपर्यवसित थी। उस प्रेम-रूपक की एक कल्पना देखिए―

ऊँचा ऊँचा पावत तहिं बसइ सबरी बाली।
मोरंगि पीच्छ परहिण सबरी गिवत गुंंजरी माली॥