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आगमों में ऋग्वेद के काम की उपासना कामेश्वर के रूप में प्रचलित थी और उसका विकसित स्वरूप परिमार्जित भी था। वे कहते थे―

जायथा सम्परिष्वक्तो न वाह्मं वेद नान्तरम्।
निदर्शनं श्रुतिः प्राह मूर्खस्प्तं मन्यते विधिम्॥

फिर भी सहजानन्द के पीछे बौद्धिक गुप्त कर्मकाण्ड की व्यवस्था भयानक हो चली थी। और वह रहस्यवाद की बोधमयी सीमा को उच्छङ्ललता से पार कर चुकी थी। हिन्दी के इन आदि रहस्य-वादियों का, आनन्द के सहज साधकों को, बुद्धिवादी निर्गुण संतों को स्थान देना पड़ा। कबीर इस परम्परा के सबसे बड़े कवि हैं। कबीर में विवेकवादी राम का अवलम्ब है और सम्भवतः वे भी साधो सहज समाधि भली इत्यादि में सिद्धों की सहज भावना को ही, जो उन्हें आगमवादियों से मिली थी, दोहराते हैं। कवित्व की दृष्टि से भी कबीर पर सिद्धों की कविता की छाया है। उन पर कुछ मुसलमानी प्रभाव भी पड़ा अवश्य; परन्तु शामी पैगम्बरों से अधिक उनके समीप थे वैदिक ऋषि, तीर्थङ्कर नाथ और सिद्ध। कबीर के बाद तथा कुछ-कुछ समकाल में ही कृष्णबाली मिश्र रहस्य की धारा आरम्भ हो चली थी। निर्गुण राम और सुधारक रहस्यवाद के साथ ही तुलसीदास के सगुण समर्थ राम का भी वर्णन सामने आया। कहना असंगत न होगा कि उस समय हिन्दी साहित्य में रहस्यवाद की इतनी प्रबलता थी कि स्वयं तुलसीदास को भी अपने महा-