हम भी शब्द और अर्थ जानते हैं। किन्तु हम उनका विन्यास वैसा नहीं कर सकते जैसा कि कवि । वह अपने शब्द और अथं के विन्यास से अपना अनुभव औगे को वैसा ही कराकर मुग्ध कर देता है जैसा कि वह स्वयं अनुभव करता है। कहा है “जो शब्द हम प्रतिदिन बोलते है, जिन अर्थों का हम उल्लेख करते है उन्ही शब्दों और अर्थो का विशिष्ट भावभंगी से विन्यास करके कबि जगत् को मोह लेते हैं।"
कवि का शब्द और अर्थ के विन्यासविशेष से काव्य को जो भव्य बनाना है वही काव्यकौशल है; वही काव्य की नूतनता है, वही कला है। इसीको श्राप चाहे तो आधुनिक भाषा मे प्रेषणीयपद्धति वा अभिव्यञ्जनाकौशल कह सकते हैं। विन्यासविशेष पर ध्यान देनेवाले हमारे प्राचीन कवि कलाकुशल तो थे ही, अभिव्यञ्जनावादी भी थे। यदि वे ऐसे न होते शब्द और अर्थ के 'विन्यास-विशेष','मंथन-कौशल', 'साहित्य-वैचित्र्य २ अर्थात् शब्द और अर्थ के सम्मेलन वा सहयोग की विचित्रता की बात वे मुंह पर कभी नहीं लाते; ऐसे शब्दों के प्रयोग नहीं करते।
कवि अपने वाच्य-वाचक को सालकार बनाने का कभी प्रयास नहीं करता। वे श्राप से आप ऐसे आ जाते हैं कि वाच्य-वाचक से उनका कभी विच्छेद नहीं हो सकता। वे उनके अग ही हो जाते है । कहा भी है कि "काव्य की रस-वस्तुएँ तथा उनके अलंकार महाकवि के एक ही प्रयत्न से सिद्ध हो जाते है।'उनके लिए 'पृथक रूप से प्रयत्न नहीं करना पड़ता । ऐसा करनेवाले प्रकृत कवि नहीं कहे जा सकते।
यदि कवि अपने काव्य से पाठकों का मनोरंजन कर सका, उनके मन में रस का सचार कर सका तो कवि अपनो कृति में सफल समझा जा सकता है। किन्तु यह उसके वश के बाहर की बात है। रसोद्रक में समर्थ भी काव्य-अरसिक के मन में रसोद्रक नहीं कर सकता। जो पाठक या श्रोता वविहृदय के साथ समरस नहीं
१ यानेव शब्दान् वयामालपामः यानेव चर्थान् वयमुल्लिखामः । तैरेव विन्यसाविशेषभव्यैः संमोहयन्ते कवयो जगन्ति ॥-शीवलीलावर्णन
२ त एव पदविन्यामाः ता एवार्थविभूतयः । तथापि नव्यं नवति काव्यं ग्रन्थनकौशलात् ॥ निदान जगतां वन्दे वस्तुनी वाच्यवाचके । तयोः सावत्यवैचित्र्यात् सता र सविभूतयः ||-काव्यमीमांसा
३. रसवन्ति हि वस्तुनि सालंकाराणि कानिचित् । एकेनैव प्रयत्नेन निवर्त्यन्ते महाकवेः ||-ध्यन्यालोक