पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३ आसत्ति प्रासत्ति को सन्निधि भी कहते हैं। एक पद के सुनने के बाद उच्चरित होनेवाले अन्य पद के सुनने के समय सम्बन्ध-ज्ञान का बना रहना 'आसत्ति' है। अभिप्राय यह कि एक पद के उच्चारण के बाद दूसरे अपेक्षित पद के उच्चारण में विनम्ब वा व्यवधान न होना ही श्रासत्ति है। 'राजा साहब' इतना कहने के बाद देर तक चुप रहकर 'कल अावेंगे यह कहा जाय तो इन दोनों का सम्बन्ध तत्काल प्रतीत न होगा और चाहिये यह कि जिस पदार्थ का जिसके साथ सम्बन्ध हो, उसके साथ ही उसका ज्ञान हो। ऐसा जब तक न होगा तब तक वाक्य न होगा। यह काल-व्यवधान है। ऐसे ही अन्यान्य व्यवधान भी होते हैं। दूसरी छाया शब्द और अर्थ प्रत्येक शब्द से जो अर्थ निकलता है वह अर्थ-बोध करानेवाली शब्द की शक्ति है। ____ यह शक्ति शब्द और अर्थ का एक विलक्षण सम्बन्ध है, जो लोक-व्यवहार से संकेतज्ञान होने पर उद्बुद्ध हो जाता है । इसे वाच्य-वाचकभाव भी कहते हैं। शब्द की तीन शक्तियाँ हैं-१. अभिधा, २. लक्षणा और ३. व्यंजना। जिनमें वे शक्तियां होती है वे शब्द भी तीन प्रकार के होते हैं- १. वाचक, २. लक्षक और ३. व्यंजक । इनके अर्थ भी तीन प्रकार के होते है- १. वाक्यार्थ, २, लक्ष्यार्थ और ३. व्यंग्यार्थ। वाच्य-अथ कथित या अभिहित होता है । लक्ष्य अथ लक्षित होता है और व्यंग्य-अर्थ व्यजित, ध्वनित, सूचित या प्रतीत होता है। अर्थ उपस्थित करने में शब्द कारण है। अभिधा आदि शक्तियां शब्दों के व्यापार हैं। वाचक शब्द जो साक्षात् संकेतित अर्थ का बोधक होता है, वह वाचक शब्द है। संसार में जितने शब्द व्यवहार में प्रचलित हैं वे सब-के-सब भिन्न-भिन्न वस्तुओं के निश्चित नाम ही है। वे ही वाचक शब्द के नाम से अभिहित होते हैं। वाचक