पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१३०

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काव्यद यहां अर्जुन का अर्थ तृतीय पांडव न होकर कातवीर्य होगा। क्योंकि निकट का सहस्रबाहु शब्द उसीका अर्थ घोषित करता है। ६ सामर्थ्य जहाँ किसी कार्य के संपादन में किसी पदार्थ की शक्ति से अनेकार्थों में से एकार्थ का निश्चय हो वहाँ सामथ्र्य है । जैसे- मन महँ प्रबिसि निकर सर जाहीं। जैसे प्रयोजन अर्थ-नियंत्रक होता है वैसे ही सामर्थ्य कारण भी। यहाँ सर शब्द का अर्थ बाण ही है न कि तालाब वा सिर । क्योंकि 'सर' में ही प्रार-पार होमे की शक्ति है। १० औचित्य जहाँ किसी पदार्थ की योग्यता के कारण अनेकार्थों में से एकार्थ का निर्णय हो वहाँ औचित्य है । जैसे- हरि के चढ़ते ही उड़े सब द्विज एक साथ । राम यहां पेड़ पर चढ़ने की योग्यता से 'हरि' का अर्थ बंदर और उड़ने की योग्यता से 'द्विज' का अर्थ पक्षी ही होगा न कि सिह आदि और न ब्राह्मण आदि । ११ देश जहाँ किसी स्थान की विशेषता के कारण अनेकार्थ शब्द के एक अर्थ का निश्चय हो वहाँ देश है । जैसे- मर में जीवन दूर है। यहाँ 'जीवन' के जिन्दगी, परम प्यारा, पानी, जीविका, पवन आदि अनेक अयं हैं। किन्तु मरु के निर्देश से 'जीवन' का अर्थ जल ही होगा। १२ काल (प्रातः संध्या, मास, पक्ष, भूतु आदि) महाँ समय के कारण एक अर्थ का निश्चय हो वहाँ 'काल' समझा भाता है। जैसे- बीथिन मैं, ब्रज मैं मवेलिन मैं, बेलिन मैं, ... बनन मैं, बागन मैं, बगरो बसंत है । पद्माकर यहाँ 'बनम' शब्द के वन, इंगल, जल आदि अनेक अर्थ हो सकते है ; किन्तुं वसंत का विकास वन में ही यथेष्ट दीख पड़ता है। इससे यहां 'बनन' का अर्थ वर्ग ही हुश्रा जैली नहीं।