पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१३५

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आथी व्यंजनों (६) प्रस्ताववैशिष्ट्योत्पन्नवाच्यसंभवा जहाँ प्रस्ताव से अर्थात् प्रकरणवश वक्ता के कथन में व्यंग्यार्थ का बोध हो, वहाँ प्रस्ताववैशिष्ट्योत्पन्न आर्थी व्यंजना होती है। स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, प्रियतम को प्राणो के प्राण में, हमीं भेज देती हैं रण में क्षात्र-धर्म के नाते । गुप्तजी इस पद्य से यह व्यग्याथं निकलता है कि वे कहकर भी जाते तो हम उनके इस पुण्य कार्य में बाधक नहीं होती। उनका चुपचाप चला जाना उचित नही था। यहाँ प्रस्ताव या प्रकरण बुद्धदेव के गृहत्याग का है। यह प्रस्ताव न होने से यह व्यंग्य नहीं निकलता। (७) देशवैशिष्ट्योत्पन्नवाच्यसंभवा जहाँ स्थान की विशेषता के कारण व्यंग्यार्थ प्रकट हो वहाँ यह भेद होता है। जैसे- ये गिरि सोई जहाँ मधुरी मदमत्त मयूरन की धुनि छाई । या वन में कमनीय मृगीन की लोल कलोलनि डोलन भाई ॥ सोहे सरित्तट धारि धनी जल वृच्छन को नम नीव निकाई । बंजुल मंजु लतान की चार चुभोली जहाँ सुखमा सरसाई ॥ -सत्यनारायण कविरत्न यहाँ रामचन्द्रजी के अपने वनवास के समय को सुख-स्मृतियाँ व्यजित होती हैं, जो देश-विशेषता से ही प्रकट हैं। (5) कालवैशिष्ट्योत्पन्नवाच्यसंभवा जहाँ समय की विशेषता के कारण व्यंग्यार्थ का बोध हो वहाँ कालवैशिष्ट्योत्पन्न आर्थी व्यंजना होती है। कहाँ जायेंगे प्राण ये लेकर इतना ताप ? प्रिय के फिरने पर इन्हें फिरना होगा आप ॥ गुप्तजी इस पद्य से जो अभिलाषा, जो वेदनाधिक्य व्यंग्य है, वह कालवैशिष्ट्य के कारण वाच्योत्पन्न है। (8) काकुवैशिष्ट्योत्पन्नवाच्यसंभवा कंठ-ध्वनि की भिन्नता से अर्थात् गले के द्वारा विशेष प्रकार से निकाली हुई ध्वनि को 'काकु' कहते है । जैसे, मैं सुकुमारी नाथ बन जोगू । तुमहिं उचित तप मो कहँ भोगू । तुलसी यहाँ सीता के कथन को जरा बदली हुई कंठ-ध्वनि से कहिये-मैं सुकुमारि ! नाथ बन जोगू ! तुमहि उचित तप ! मो कहँ भोगू ! तो यह व्यंग्यार्थ प्रकट होगा