पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१३८

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काव्यदर्पण ___रस-प्रतीत में-रस साक्षात्कार में-चाक्षुष नहीं, मानस प्रत्यक्षीकरण में सत्य का उद्रेक ही कारण है। हमारे अन्तःकरण में कभी रजोगुण, कभी तमोगुण और भी सतोगुण प्रबल होता है। एक के सबल होने से अन्य दो निर्बल हो जाते हैं। सत्व के उद्रेक से अर्थात् रजस और तमस को पंगु बनाकर-कार्य-करण असमर्थ कर प्रकाशित होने से, रस का साक्षात्कार होता है। __गिने-गिनाये कुछ फलाभिमुख पुण्यशाली प्रमाता अर्थात् यथार्थ विद्वान् हो विभावादि के संयोग से सहृदय में वासनारूप से विनिविष्ट रति आदि रूप में परिणत रस का आस्वाद लेते हैं। दूसरी छाया रस-रूप की व्याख्या केवल शब्दाडम्बर से किसी को कोई रचना कविता नहीं कही जा सकती। इसके लिए उसमें हृदयस्पर्शी चमत्कार होना चाहिये । वह चमत्कार रस है । शब्द और अर्थ कविता के शरीर है और रस प्राण । प्राण ही पर शरीर की सत्ता- कार्यशीलता-निर्भर है। रस के बिना रचना कविता कहलाने की अधिकारिणी नहीं है। रसबोध में वासना का होना अत्यन्त आवश्यक है। उसके विना रस-प्रकाश के कारण रहते भी रस की प्रतीति उसी प्रकार नही होती जिस प्रकार नेत्र-विहीन को दिखाये गये दृश्यों की और बहरे को सुनाये गये गीतों की। यह वासना ईश्वरीय देन है। इसके लिए अतीत जन्म का संस्कार भी कारण माना गया है । वासना के बिना कितने विलासप्रिय व्यक्तियों को भी काव्यगत शृङ्गार रस का आनन्द नहीं प्राप्त होता । जैसे सौ और आंसू सबमें विद्यमान रहते हुए भी सर्वदा भासित नहीं होते, अपने विशेष कारणों के अनुभूत होने पर ही व्यक्त होते हैं, बैसे ही रति आदि स्थायी भाव वासना रूप से प्रत्येक सहृदय के हृदय में स्थित रहने पर भी व्यक्त नहीं होते। जब उनके उद्बोधक नायक-नायिका श्रादि विभाव अपने पोषक उपकरणों से पुष्ट होते हैं तभी वे ( रति आदि स्थायी भाव ) रस के रूप से प्रकट होते हैं। ry काव्य के दो पक्ष होते हैं-भावपक्ष और विभावपक्ष। किसी-किसी वस्तु वा अक्ति के प्रति विशेष-विशेष अवस्थाओं में किसीकी जो मानसिक स्थिति होती है उसे भाव कहते हैं और जिस वस्तु वा व्यक्ति के प्रति वह भाव व्यक्त होता है वह सवासनानो सन्यानां रसस्यास्वादनंभवेत् । .. निर्वासनास्त रजान्तः काष्ठकुयरमसंनिमा सहित्यर्पण