पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१३९

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रस-रूप को व्यवस्था विभाव कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है-बालंबन और उद्दीपन । जिसका अाधार लेकर कनकी कोई मन:स्थित उद्बुद्ध होती है या जिसपर किसी का भाव टिवता है वह बालंबन विभाव है। जहां यह भाव उठता है उसे श्राश्रय कहते है। आलंबन की चेष्टा, शृङ्गार आदि तथ देश-काल, चंद्र, चाँदनी श्रादि उद्दीपन विभाव है। साहित्य की भाषा में उसे विभाव कहा जाता है, जिसे व्यवहार जगत् में कारण कहते हैं। जिस प्रकार मोमबत्ती सलाई से जल उठती है, बांसुरी फूक पड़ने से गूंज उठती है उसी प्रकार रति-शृङ्गार-भावना प्रेमपात्र नायिका के दर्शन, चेष्टा श्रादि से उत्पन्न होती है, जाग उठती है। अतः नायिका शृङ्गार रस का प्रधान श्राल बनभूत-कारण है और चेष्टा आदि गौण-उद्दीपक कारण है । इसमें नायक श्राश्रय होता है। इन्हीं से शृंगार-भावना उबुद्ध होकर विभावित-आनन्द की स्थिति में पहुँचायी गयी होती है, अतः ये विभाव कहलाते है। आलंबन और श्राश्रय मे जो बाह्य पारस्परिक चेष्टाएँ या व्यापार होते हैं वे रति की पुष्टि में एक दूसरे के सहायक होते है। लोक में अपने-अपने बालंबन और उद्दीपन-रूप कारणों से नायक के हृदय में उद्बुद्ध रतिभाव के प्रकाशक जो कार्य होते है वे अनुभाव है। स्त्रियों के अंगज तथा स्वभावज अलंकार सात्विक भाव और रति आदि की चेष्टाएँ भी अनुभाव कहलाती हैं। जिस प्रकार वीणा संघर्षण से झंकनमात्र होती है पर हृदयग्राही राग का प्रस्फुटित होना अँगुलियों की संचालनकला पर निर्भर रहता है, उसी प्रकार विभाव शृंगारभाव को जगा भर देते हैं और उसे आस्वाद का रूप देना बालंबन और आश्रय के बाहरी कार्यों पर ही अवलंबित रहता है। नायक-नायिका के कटाक्ष आदि चेष्टाएँ उनके हृदयनत अनुराग का अनुभव कराती हैं। अतएव ये अनुभाव हैं। लोकव्यवहार में इन्हें कार्य इसलिए कहते है कि ये कारणरूप विभाव से उत्पन्न होते हैं। विभाव और अनुभाव का आपस में वही सम्बन्ध है जो कलिका और सुवास में होता है। नायिका को देखनेमात्र से शृङ्गार-भावना नहीं होती। जब उसको श् गार-रस-व्यञ्जक चेष्टायें दृष्टिगोचर होती हैं तभी आनन्द का विकास होता है। अनुभाव के अभाव में विभाव मुकुल के तुल्य अस्फुट रहता है। उससे रस का पोषण नहीं होता। वही नायिका शृङ्गार रस का बालबन हो सकती है, जो नायक के ऊपर आकृष्ट और अनुरक्त हो। अनुरक्ति-सूचक चेष्टा के बिना नायकाश्रित भावावेश तैलहीन दीपक के समान बलकर भी बुत जायगा। ___भाव दो प्रकार के होते हैं-स्थायो और अस्थायी। स्थायी की स्थिति चिरकाल तक बनी रहती है। स्थायी भाव ही रसावस्या तक पहुँचते हैं। स्थायी भावों के ही सहकारी कारण होते है अस्थायी भाव । अस्थिर चित्तवृत्तियां ही