पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१४

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काव्यशास्त्र की भूमिका उपक्रम संसार-विषवृक्षस्य द्वे एव मधुरे फले। काव्यामृतरसास्वादः संगमः सज्जनः सह ॥ इस संसार-रूपी विष-वृक्ष के दो ही मीठे फल है-एक तो काव्यामृत का रसास्वाद और दसरा सज्जनो का सहवास । संसार के मधुर फल-काव्यरूपी अमृत के रस का आस्वादन लेनेवाले- काव्यानन्द के उपभोक्ता-सहृदय होते है। सहृदय को ही आप चाहे भावुक कहें, चाहे विदग्ध, चाहे सचेतस् । सहृदय काव्य मे तन्मयीभवन की योग्यता रखनेवाले होते है। आनन्दवद्धनाचार्य ने सहृदयत्व की व्याख्या के अवसर पर स्वयं यह प्रश्न किया है कि "सहृदयता क्या काव्यगत रसभाव आदि की ओर लक्ष्य न रखकर काव्य के आश्रित अर्थात् रचनागत समयविशेष की अभिज्ञता है या रसभावादि- मय काव्य का जो मुख्य स्वरूप है, उसके जानने की विशेष निपुणता ?" इसका उत्तर उन्होने दूसरे पक्ष मे ही दिया है। अर्थात्, रसभाव के ज्ञान मे निपुण होना ही सहृदयता है। इससे स्पष्ट है कि रचना की अपेक्षा काव्य मे रसभाव की प्रधानता है । अतः, निस्सन्देह यह कहा जा सकता है कि काव्यानन्द के लिए रसभाव का ज्ञान होना आवश्यक है और वह काव्यशास्त्र से ही संभव है। ____ प्राचार्य दण्डी कहते है कि “जो शास्त्र नहीं जानता, अर्थात् काव्यगत मर्म के बोधक ग्रन्थो का अनुशीलन नहीं करता, वह भला कैसे गुण-दोष को बिलगा सकता है ? अन्धा यदि समझदार हो तो भी रूप-भेद को नहीं बतला सकता, सुन्दर-असुन्दर के निदेश मे कभी समर्थ नहीं हो सकता। अतः, जिज्ञासुत्रो की व्युत्पत्ति के लिए, उनके ज्ञानसंचय के लिए विविध प्रकार की वचन-रचना के नियामक इस शास्त्र का निर्माण किया गया ।१२ १. कि रसभावानपेक्षकाव्याश्रितसमयविशेषामित्वम् , उत रसभावादिमयकाव्य- स्वरूपपरिशाननैपुण्यम् ।-वन्यालोक २. गुणदोषानशास्त्रशः कथं विभजते नरः। किमन्धस्याधिकारोऽस्ति रूपभेदोपलब्धिषु । अतः प्रजानां व्युत्पत्तिममितंधाय सूरयः । याचा विचित्रमार्गाणां निववन्धुः क्रियाविधिम् ।-दशरूपक