पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१४५

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श्रालंबन विभाव और भाव आजकल के गीतिकार कवि व्यक्तिगत अनुभूति को प्रकट करने के कारण प्रायः अपनी कविता में अपने आपको ही आलंबन वा आश्रय के रूप में रखते हैं, जिससे किसी उद्दीपन या अनुभाव की व्यंजना अनिवार्य नहीं रहती। पाँचवीं छाया आलंबन विभाव और भाव भाव सुखात्मक होते हैं वा दुखात्मक। इन सुख-दुख दोनों से राग और द्वष उद्भूत होते है।' इन्हीं से अनेक भावों की सृष्टि होती है । बालबन की विशेषता से इनमें अन्तर आ जाता है । जैसे सम्मानित व्यक्ति के प्रति राग सम्मान का; समान के प्रति प्रीति का और होन के प्रति करुणा का आकार धारण कर लेता है, ऐसे ही द्वेष बलवान के प्रति भय, समान के प्रति क्रोध और हीन के प्रति घमंड का रूप ग्रहण कर लेता है । इसी प्रकार जीवन में भावों के अनेक परिवर्तन होते रहते हैं। जैसे भिन्न-भिन्न बालबन के प्रति एक ही भाव में अन्तर आ जाता है वैसे ही भिन्न-भिन्न भावों का एक ही बालबन भी हो सकता है। किसी अत्याचारी के अत्याचार को देखकर कोई उसपर ऋद्ध हो सकते है, कोई घृणा से मुंह मोर ले सकते हैं और कोई जली-कटी सुना सकते है । संभव है, कोई देख-सुनकर रोने भी लगे और कोई धैर्य धरकर देखता ही रहे । इसका कारण स्वभाव की विलक्षणता ही है । आलंबन दो रूपों में हमारे सामने आते हैं। एक तो उनका वह रूप है, जिससे हमारा तादात्म्य हो जाता है। इसका कारण हमारा संस्कार है। यद्यपि 'मेघनादबध' में लक्ष्मण के द्वारा निःशस्त्र मेघनाद का असहायावस्था में बध होने से हमारा संस्कार तिलमिला उठता है तथापि हम यह कहकर संतोष कर लेते हैं कि भले ही दुष्ट मारा गया। जहाँ एक सजातीय और एक विजातीय पहलवान परस्पर लड़ते हैं वहाँ जब सजातीय पहलवान मिट्टी चूमता है तब हमारा मुँह सूख जाता है और वही अपने प्रतिद्वन्द्वी को पछाड़ देता है तब हम उछल पड़ते हैं । ऐसी प्रत्यक्षानुभूति में संस्कार ही पक्षपात करता है। यही बात रसानुभूति में भी है। राम और रावण, दोनों समान योद्धा, समान वीर तथा समान बली है और उनका युद्ध 'राम- रावणयोयुद्ध रामरावण्योरिव' इस उपमेयोपमा का उदाहरण है । पर हमारा झुकाव राम की ओर ही होता है, क्योंकि हमने उनके साथ एक संबंध जोड़ लिया है । हम संस्कारवश राम की विजय को अपनी विजय समझते हैं। इससे एक ही प्रकार के व्यक्ति समान भाव से रसानुभूति के आलंबन नहीं हो सकते। १ सुखानुरायो रागः । दुःखानुशयी देषः । पातंजल योगसूत्र