पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१५४

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सात्विक अनुभाव के भेद २. स्वेद क्रोव, भय, हर्ष, श्रम, दुःख आदि से यह उत्पन्न होता है। पसीना आना श्रादि इसके अनुभाव हैं। संग्राम भूमि, बिराज रघुपति अतुल बल कोशल धनी । श्रम-बिन्दु मुख राजीव-लोचन अरुनतन सोनित कनी। -तुलसी एक बार फिर से पसीना पोछ मुख का दीर्घ श्वास त्यागकर विजन विपिन में, आगे बढ़ा पथिक कराहता-विलखता ।-वियोगी ३. रोमांच यह हर्ष, श्रम, शीत, स्पर्श, क्रोध आदि से उत्पन्न होता है। इसमें शरीर का कण्टकित और पुलकित होना अनुभाव है। १ अरे वह प्रथम मिलन अज्ञात विकम्पित मृदु उर, पुलकित गात । सशंकित ज्योत्सना-सी चुपचाप जड़ित पद नमित पलक दगपात ।-पंत फुल्ल बाहों का मुग्ध मृणाल, बाल मुकुलों की माल ? खिली रोओं की पुलकित डाल, बदन जावक से लाल ? सुनहली किरणों का दृगपात, आज उज्ज्वल मधुप्रात ।-आरसी इस कविता की दूसरी पंक्ति में पुलक का वर्णन है। ४. स्वरभंग भय, हर्ष, क्रोध, मद आदि से यह उत्पन्न होता है। स्वाभाविक ध्वनि का बदल जाना, स्वर का गद्गद होना, इसके अनुभाव हैं। १ चकित दृष्टियाँ व्याप्त हुई वहाँ सुमित्रा प्राप्त हुई। वधू उर्मिला अनुपद थी देख गिरा भी गद्गद थी।-गुप्त २ बिरह विथा की कथा अकथ अथाह महा कहत बने न जो प्रबीन सुकबीनि सों। कहे 'रतनाकर' बुझाबन लगें ज्यों कान्ह, ऊधो कौँ कहन हेत ब्रज जुबतीनि सौ। गहबरि आयो गरो भभरि अचानक त्यौं, प्रेम पर्यो चपल चुचाइ पुतरीनि सौं । नेकु कही बैननि अनेक कही नैननि सौं, रही सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनि सौ ॥