पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१६

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कवि या कोई अन्य कवि दावे के साथ कभी यह नहीं कह सकता है कि मैंने कविता लिखने के पूर्व दो-चार काव्यो को पढ़ा नही, सुना नहीं। पढ़ने-लिखने की बात को वे अस्वीकार नहीं कर सकते । यदि ऐसी बात है तो वे यह कैसे कह सकते है कि मैने यह न पढ़ा और न वह पढा । लक्ष्य-ग्रन्थो को पढ़ना प्रकारान्तर से लक्षण- ग्रन्थो का ही पढ़ना है। लक्षण-ग्रन्थ तो लक्ष्य-ग्रन्थों पर ही निर्भर करते है ; क्योकि लक्ष्य-ग्रन्थों मे वे ही बते पायी जाती है, जिनपर लसूण-ग्रन्थो मे विचार किया जाता है । दूसरी बात यह भी है कि उस वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है, जिसमे बराबर काव्य-चर्चा होती रहती है। एक प्रकार से इस चर्चा में शास्त्रीय विषयों की भी अवतारणा हो जाती है। लक्षण-ग्रन्थ तो साहित्य-शिक्षा का ककहरा है, जिसके . अध्ययन से उसमे सहज प्रवेश हो जाता है और लक्ष्य-ग्रन्थों के सहारे लक्षण-ग्रन्थ . का ज्ञान प्राचीन लिपियो के उद्धार-जैसा कठिन नहीं होता.। लक्षण-ग्रन्थ--- साहित्यशास्त्र का अध्ययन-काव्य-बोध का मार्ग प्रशस्त कर देता है। कुछ प्रतिभा- शाली कवियो के कारण काव्यशास्त्र के अध्ययन की अनावश्यकता सिद्ध नहीं हो सकती। - दूसरा आक्षेप एक प्रगतिवादी साहित्यिक लिखते है-रस-सिद्धान्त श्रादि के विषय मे अवश्य मेरा मतभेद है ; क्योकि नवीन मनोवैतानिक संशोधनो ने प्राचीन रस-सिद्धान्त में आमूल अन्तर ( १ ) कर दिये हैं । (उदाहरणार्थ, फ्रायड वात्सल्य को भी रति-भाव मानता है; या, जगुप्ता या घृणा भी एक प्रकार की रति-भावना ही है ।) चूँ कि, रस-सिद्धान्त कोई अटल वस्तु नही है ; अतः, छंद, अलंकार, भाषा आदि बाह्य रूपों के समान इसकी भी नये सिरे से व्याख्या होनी चाहिये ।' यह केवल अँगरेजी-साहित्य पर निर्भर रहने का ही परिणाम है। रस-सिद्धान्त के सम्बन्ध मे मनोवैहानिक अनुसन्धानो ने जो नया दृष्टिकोण उपस्थित कर दिया है, वह क्या है, इसका पूर्ण प्रतिपादन हो जाना चाहिये था । रस-सिद्धान्त मे यह एक नयी वात जुड़ जाती या उतका रूप ही बदल जाता । उदाहरण की बात से तो यह मालूम होता है कि उनसे कोई रस-सिद्धान्त नहीं बनता। आमूल अन्तर की बात तो कोई अर्थ ही नहीं रखती । यह तो लेखनी के साथ बलात्कार है। फ्रायड की यह कोई नयी बात नहीं है। वाटसन "बिहैवरिज्म' (Behaviourism) नामक ग्रन्थ में यह बात लिख चुका है, जिसका सारांश १. 'साहित्यप्तदेश', अगस्त, १६४६