पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१७२

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संचारी भाव प्रकृति शक्ति तुमने यन्त्रों से सबकी छीनी। शोषण कर जीवनी बनायी जर्जर झीनी । और इड़ा पर यह क्या अत्याचार किया है ? इसीलिये तू हम सब के बल यहां जिया है। आज बंदनी मेरी रानी इड़ा यहाँ है। ओ 'यायावर अब तेरा निस्तार कहाँ है?-प्रसाद उक्त पंक्तियों में मनु के प्रति क्षुब्ध प्रजा के जो भाव है उनसे उग्रता की व्यञ्जना है। २८. मति • शास्त्रादि के विचार से किसी तथ्य का निर्णय कर लेना मति है। सन्तोष, आत्मतृप्ति, ढाढस बँधना श्रादि इसके अनुभाव हैं। अपनहि नागर अपनाह दूत । से अभिसार न जान बहूत । को फल तेसर कान जनाय । आनब नागर नयन बशाय ।-विद्यापति "जिसमें श्राप हो दूती और श्राप ही नायिका बनी रहे उस मिलन को सब नही जान सकते । किसी तीसरे को जानकर क्या करना है ? नागर को स्वयं नयनों से उलझा करके ले आऊँगी।" ___ यहाँ नायिका ने कृष्ण-मिलन का जो निश्चय किया है उससे मति की व्यञ्जना है। नहीं, ऐसा मत कहो, वे सुन रहे संसार मेरे । हृदय में बैठे हुए सखि, प्राणप्रिय राधाविमोहन ।-भट्ट स्वर बदलकर कृष्ण के स्वयं अपनी निन्दा करने पर राधा को उक्ति से मति की व्यञ्जना है। सुनती हो कहा, भजि जाउ धरै, बिध जावोगी काम के बानन में, यह बंशी "निवाज' भरी विष सों विष सों भर देत है प्रानन में । अब ही सुधि भूलि हो भोरी भटू विरमो जनि मीठी सी तानन में, कुल कानि जो आपनि राख्यों चहौ अंगुरी दे रहो दुउ कानन में। मुग्धा नायिका को जो सखी का उपदेश है उससे मति व्यञ्जित है। २६. व्याधि रोग, वियोग आदि से उत्पन्न मन के सन्ताप को व्याधि कहते हैं। इसमें लेटे रहना, पांडु हो जाना, कम्प, ताप आदि अनुभाव होते हैं। मानस मंदिर में सति पति की प्रतिमा थाप । जलती-सी उस विरह में बनी आरती आप-गुस का० द०-११