पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१७५

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काव्यदर्पण लीजिये ज्वाय सुधामधु प्याय के न्याय नहीं विषगोली गिलोगे। पंचनि पंच मिले परपंच में काहि मिले तुम काहि मिलोगे ।-देव पंचतत्त्वों में पांचों-क्षिति, अप् , तेज, मरुत्, व्योम-भूतो के मिल जाने पर अर्थात् मर जाने पर किससे मिलोगे । यहाँ मरण की पूर्वावस्था में मरण को व्यंजना है। यह भी व्यवस्था है कि मरण का वर्णन इस प्रकार होना चाहिये, जिससे शोक उत्पन्न न हो। से, नील नभोदेश में मा भारत वसुन्धरा । दीख पड़ी बैठी कोकनद पर मोद में। आर्ययुत्र और कविचन्द मातृकोड़ में बैठे है, प्रकाश पूर्ण देवरूप धर के, मानो गणराज और कार्तिकेय बैठे हों गोद में भवानी के विचित्र वह दृश्य था ।-आर्यावर्त महारानी संयोगिता के स्वर्गीय आर्यपुत्र पृथ्वीराज का जो दिव्य दर्शन प्राप्त हुश्रा उससे रानी के मन में मरण-मूलक जो भावनाएँ जगीं, क्या वे शरीर- वृत्ति कहो जायँगी ? अतः मरण का हमारा यह लक्षण है-'चित्तवृत्ति को ऐसी दशा, जिसमें मृत्यु के तमाम कष्ट की अनुभूति हो अथवा वह दशा भावान्तर से इस प्रकार अभिभूत' हो गयी हो कि मृत्युकष्ट नगण्य जान पड़े। जैसे, आज पति होना हुई शोक नहीं इसका, अक्षय सुहाग हुआ, मेरे आर्यपुत्र तो- अजर-अमर हैं सुयश के शरीर में।-वियोगी (२) श्रम संचारी का यह लक्षण है- रति और मागं चलने आदि से उत्पन्न भेद का नाम श्रम है । वह निद्रा, निःश्वास आदि उत्पन्न करता है। दर्पणकार के उदाहरण का यह तुलसीकृत अनुवाद है, जो उससे कहीं सुन्दर है। पुरते निकसी रघुबीरबधू धरि धीर दये मग में डग । झलकी भरी माल कनी जल की पुट सूखि गये मधुराधर वै॥ फिरि बूझति हैं चलनो अब केतिक पर्णकुटी करि हौ कित है। तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चली जल च्वै ॥ १ मरणमचिरकालप्रत्यापत्तिमयमत्र मन्तव्यं येन शोकाऽवस्थानमेव न लभते । अमिनका २ खेदो रत्यश्वगत्यादेः श्वासनिद्रादिकृच्छमः | साहित्य दर्पण