पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१७६

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संचारी भाव और चित्तवृतियां इसमें महारानी सीता की मुकुमारता तो स्पष्ट व्यक्षित है ! श्रम संचारी को । व्यंजना भी कोमलता और मार्मिकता से की गयी है। पतिव्रता प्रत्येक दशा में पति को अनुगामिनी होती है, यह वस्तुध्वनि भी होती है । अन्तिम पंक्ति से राम के अत्यन्त अनुराग और विषाद भी व्यंजित हैं। ___इसमें अधरों का सूखना और श्रमविन्दुनो का झलकना शारीरिक धर्म है, 'पर कितनी दूर अब चलना है और कहाँ कुटिया छवावेंगे' में जो हृदयमंथन है वह तो शरीर वृत्ति नहीं है । इस कथन में भी तो श्रम व्यंजना है। इससे श्रम को केवल शारीरिक वृत्ति माननेवाले मनोवैज्ञानिकों का मानमर्दन तो अवश्य हो जाता है । पण्डितराज का यह वाक्य 'शरीर-प्राण-संयोग-हर्ष श्रादि सभी व्यभिचारी भावों का कारण है बड़ा मामिक है। यह बात ज्ञान-विज्ञान से सिद्ध है कि जब तक मन और इन्द्रिय का संयोग नहीं होता तब तक किसी वस्तु का बोध नहीं होता। श्रान्त मन का प्रभाव शरीर पर भी पड़ता ही है। इस दशा में कैसे कोई कह सकता है कि श्रम मनोविकार नहीं है। पूजा पाठ भजन-आराधन, साधन सारे दूर हटा, द्वार बन्द कर देवालय के कोने में क्या है बैठा ? अन्धकार में छुप मन ही मन किसे पूजता है चुपचाप ? आँख खोल कर देख यहाँ पर कहाँ देव बैठा है आप ? -गिरिधर शर्मा यह 'गीतांजलि' के एक गीत का एकांश है। इसमें मानसिक श्रम की स्पष्ट व्यञ्जना है। पूजा-पाठ-भजन को हम शारीरिक श्रम मानें भी तो वह मानसिक श्रम के आगे नगण्य है। (३) निद्रा की भी गणना शरीर-वृत्तियों में की जाती है। यह भौतिक निद्रा है। संचारी भाव के रूप में भी निद्रा होती है। यह मानसिक निद्रा है। भौतिक निद्रा इसी मानसिक निद्रा का परिणाम है। यह चित्तवृत्ति है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 'चित्त का संमोलन अर्थात् वाह्य विषयों से निवृत्ति ही निद्रा है। यह परिश्रम, ग्लानि, मद आदि से उत्पन्न होती है । इसमें जंभाई, आँख मोचना अँगड़ाई आदि होते हैं। इसमें चित्त का संमीलन स्पष्ट बता रहा है कि निद्रा चित्त का ही विकार है। योग के अनुसार सुषुप्त भी चित्रवृत्ति ही है। पर यह भावात्मक निद्रा नहीं है। १ चेतासंमीलनं निद्रा श्रमलमगदादिना । ज़म्भाक्षिमीलनोवासगात्रभंगादिकारणम् !-सा दर्पण २ अभावप्रत्ययायम्बनावृत्तिनिद्रा, योगसूत्र (११० ) के व्यासभाय और ठीका देखो।