पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१८०

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कल्पित-संचारी ६१ पन्द्रहवीं छाया कल्पित संचारी रति श्रादि स्थायी भाव जब रसावस्था को नहीं पहुँचते तब वे केवल भाव ही कहलाते है। शाङ्ग देव का मत है कि अधिक वा समर्थ विभावों से उत्पन्न होने पर हो रति आदि स्थायी भाव हो सकते हैं ; पर यदि वे थोड़े वा श्राशक्त विभावों से ही उत्पन्न हो तो व्यभिचारी हो जाते हैं। जैसे- तब सप्तरथियों ने वहां रत हो महा दुष्कर्म में, मिलकर किया आरंभ उसको बिद्ध करना मर्म में। कृप, कर्ण, दुःशासन, सुयोधन, शकुनि, सुतयुत द्रोण भी। उस एक बालक को लगे वे मारने बहुविध सभी । गुप्त यहाँ क्रोध स्थायी भाव है पर इसको पुष्टि विभाव आदि से वैसी नहीं होती' जैसी होनी चाहिये । इसमें अभिमन्यु का शौर्यमात्र प्रदर्शित है, जो एक उद्दीपन है। वह भी असमर्थ है : इससे क्रोध स्थायों भाव संचारी भाव-सा हो गया है। श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन तेज से जलने लगे; सब शील अपना भूलकर करतल युगल मलने लगे। 'संसार देखे अब हमारे शत्र रण में मृत पड़े' ; करते हुए यह घोषणा के हो गये उठकर खड़े। उस काल मारे तेज के तन काँपने उनका लगा; मानो पवन के जोर से सोता हुआ अजगर जगा ।--गुप्तजी यहाँ अभिमन्यु-वध पर कौरवों का हर्ष प्रकट करना आलंबन है। श्रीकृष्ण के ऐसे वाक्य- हे वीरवर ! इस पाप का फल क्या उन्हें दोगे नहीं ? इस वैर का बदला कहो क्या शीघ्र तुम लोगे नहीं ? उद्दीपन है । अर्जुन के वाक्य, हाथ मलना आदि अनुभाव हैं । उग्रता, गवं श्रादि- संचारी हैं। इससे यहां रौद्र रस की जो व्यञ्जना होती है उसमें विभावों की अधिकता और उनकी प्रबलता ही है। इसका विचार अन्यत्र भी किया गया है। इस तरह मान लेने पर ही जब स्थायी भाव अन्य रसों में गये हुए होते हैं तो संचारी बन जाते हैं। रसान्तर में स्थित होने के कारण, इनकी वह अस्त्राद्ययोग्यता वर्तमान नहीं रहने पाती, जो अपने आधारभूत रस में रहती है । १ रत्यादयः स्थायिभायाः स्युभूयिष्ठविभावजाः । स्तोकैर्विभावैरूत्पन्नाः त एव व्यभिचारिणः । संगीतरत्नाकर