पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

'६२ काव्यदर्पण इसीसे हास्य रस का हास स्थायी भाव जव शृङ्गार और वीर रस में जाता है तब सचारी हो जाता है। इसका वह अथ नहीं कि विजास-कामना के कारण हास्य- प्रवृत्ति का निर्माण होता है। बल्कि शृङ्गार रस के विभावों से हास्य रस कहीं-कहीं परिपुष्ट होता है, ऐसा हो अर्थ अभीष्ट है । सर्वत्र ऐसा ही समझना चाहिये । जैसे कि शृङ्गार में आनन्द के उद्गार से स्मित आदि होना अथवा श्राक्षेप के तात्पर्य से अवज्ञापूर्ण हँसो हँसना स्वाभाविक है। इस प्रकार वीर रस मे उत्साह तो मेरुदण्ड- स्वरूप है ही, लेकिन क्रोध का यत्रतत्र दिखाई पड़ना भी संभव है। कारण यह कि शत्रु की उग्रता या अपने अस्त्र-शस्त्रों की विफलता चित्तवृत्ति को कभी-कभी उद्रिक्त- उत्तेजित कर खीझ पैदा कर देती है। इस भाव से प्रकृत रस का पोषण हो होता है, जिससे युद्ध को सन्नद्धता और तीव्र हो जाती है। इसी प्रकार शान्त रस में निर्वेद आधार है । परन्तु सुगुप्सा, जो वीभत्स रस का स्थायी है, यहाँ जब तब उदय लेकर विराग को अत्यन्त तीव्र बना देती है। कारण, घृणा की भावना किसी भी वस्तु के प्रति उत्पन्न अनासक्ति को और भी संवर्धित करेगी। इस प्रकार शृङ्गार, रौद्र, वीर और वीभत्स रसों के विभावों से हास्य, कारण, अद्भुत और भयानक रस उत्पन्न हो सकते हैं। इन भावों के संचार का भी अपना विशिष्ट औचित्य होता है, जिससे रखों का स्वरूप और सुन्दर हो जाता है। श्रथच इस रोति से यह भी सिद्ध होता है कि और-और रसों में जाकर ये स्थायी भाव संचारी हो जाते हैं। ___ प्रबन्ध-काव्यों और नाटकों में भी एक ही रस प्रधान रहता है। शेष रस, जो अवान्तर मेद से आते हैं, व्यभिचार भाव का ही काम देते है । रामायण करुणरस काव्य है जैसा कि वाल्मीकिजी ने ही कहा है। शेष रस उसके सहायक हैं। शकुन्तला-नाटक शृङ्गाररस-प्रधान है। पर उसमें करुण आदि रसों का भी समावेश है । मुख्यता न रहने से ये संचारी बन जाते हैं और शृङ्गार को पुष्टि करते हैं। जो सचारी भाव स्वतन्त्र रूप से आते हैं, अर्थात् स्थायी भाव के सहायक होकर नहीं पाते, उनको अभिव्यक्ति स्वतन्त्र रूप से होती है। वे भाव कहे जाते हैं। क्योंकि प्रधान संचारी भाव ही होते हैं । O १ शृङ्गारवीरयोहांसः वीरे क्रोधस्तथा मतः । शांते जुगुप्सा कथिता व्यभिचारितया पुनः॥ इस्वाथन्यत् समुन्नेयं सदा भावितबुद्धिभि | साहित्यदर्पण २ एक कार्यों रसः स्थायी रसानां नाटके सदा। रसास्तदनुवायित्वात् अन्य तु न्यभिचारिणः । संगीतरत्नाकर