पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१८४

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काव्यदर्पण की बाधा दूर करने से उत्साह भी दिखाता है। प्रानन्द के समय हसता है तो अनचाही वस्तु को देखकर मुंह भी फेर लेता है । इस प्रकार १ भय, २ अनुराग, ३ करुणा, ४ क्रोध, ५ श्राश्चयं, ६ उत्साह, ७ हास और पूणा-ये ही हमारे अाठ मूल भाव है, जो सदा क साथी हैं। ये हो बाठों भाव काव्य के स्थायी भाव कहे जाते है । भरत के मत से ये हो प्रधान पाठ भाव है। पके हुए मिट्टी के बर्तन में गन्ध पहले से ही विद्यमान रहती है। पर उसको अभिव्यक्ति तब तक नहीं होतो जब तक उस पर पानी के छींटे नही पड़ते । अथवा यो समझिये कि काठ में भाग लुप्त रहती है, दबो पड़ा रहती है। प्रत्यक्ष नहीं दीख पड़ती। जब घषण होता है तब उससे पैदा होकर अपना काय किया करती है। उसी प्रकार मनुष्य के अन्तर में रति आदि भाव वासना रूप में दबे पड़े रहते हैं। समय पाकर वही अन्तःस्थ सुप्त भाव काव्य के श्रमण और नाटक-सिनेमा के दर्शन से उद्बुद्ध हो जाता है तब अानन्द का अनुभव होने लगता है। यही दशा स्थायी भाव की रसदशा कहलाती है। शास्त्रकारों ने स्थायी भावों का बड़ा गुणगान किया है। इन्हें राजा और गुरु की उपाधि दी है। अपने गुणों के कारण ही इन्ह ये उपाधियाँ प्राप्त हुई हैं। राजा के परिजन तभी तक पृथक-पृथक संबोषित होते हैं जब तक राजा के साथ नहीं रहते। साथ होने से राजा को बात करने से सभी को बातें उसके भीतर श्रा जाती हैं। इसी प्रकार विभाव, अनुभाष और संचारी भावों से रस संक्षा को प्राप्त होने पर केवल स्थायो भाव हो रह जाता है, शेष का नाम नहीं रने पाता। स्थायी भाव ही रसावस्था तक पहुँच सकते हैं, अन्यान्य भाव नहीं। विभाव, अनुभाव और संचारियों से पुष्ट होकर भी कोई संचारी भाव स्थायी भाव के समान रसानुभव नहीं करा सकता। कारण यह कि संचारी को हो प्रधानता मानी जायगी। उसका कोई स्थायित्व नहीं रह पाता । __ कोई भाव संपूर्णतः किसी भाव के समान नहीं है। फिर भी उनमें कुछ समानता पायो जाती है। ऐसे चित्ताति-रूप अनेक भावों में से जिनका रूप व्यापक है, विस्तृत है वे पृथक रूप से चुन लिये गये। और उन्ह हो स्थायी भाव का नाम दे दिया गया है। ये रति श्रादि है। इनकी गणना प्रधान भावों में होती है। इन्हें स्थायी भाव कहने का कारण यह है कि ये हो भाव-बहुलता से प्रतीत: - १. आत एव हि जन्तुः इयतोमिः संविदिमः परीतो भवति ।-भिनय गुप्त २. यथा नराणां नृपतिः शिष्याणां च वयागुरू। एवं हि सर्वभावानां भाव स्थायी महानिए । नानास्त्र