पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१८७

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स्थायी भाव के भेद दुख की दीवारों का बंदी निरख सका न सुखी जीवन । सुख के मादक स्वप्नों तक से बनी रही मेरी अनबन ! -हरिकृष्ण प्रेमी यहाँ केवल 'शोक' भाव की व्यंजना है । करुण रस की पुष्टि नहीं है। भोरन को ले के दच्छिन समीर धीर, डोलति है मंद अब तुम धौ कितै रहे ।। कहे कवि 'श्रीपति' हो प्रबल बसन्त मति- ___ मंद मेरे कंत के सहायक जित रहे । लागत बिरह जुर जोर ते पवन ह के परे धूमि भूमि पै सम्हारता तितै रहे । रति को विलाप देखि करुना अगार कछ लोचन को मूदि के त्रिलोचन चितै रहे । यहां 'कछु' शब्द से शोक भाव ही रह जाता है । करुण रस का परिपाक नहीं होता। ४. क्रोध असाधारण अपराध, विवाद, उत्तेजनापूर्ण अपमान आदि से उत्पन्न हुए मनोविकार को क्रोध कहते हैं। उठ वीरों की भाव-रागिनी, दलितों के दल की चिनगारी । युग-क्षित यौवन की ज्वाला, जाग-जाग री क्रांति कुमारी । दिनकर वहां कवि को ललकार से क्रोध को ही व्यञ्जना है । रौद्ररस की पुष्टि नहीं है। आज्ञा माप दीजिये केवल जो न करूं रियुहीन मही । ईश शपथ फिर नाथ आज से मेरा लक्ष्मण नाम नहीं। -रा०च० उ० यहाँ लक्ष्मण का क्रोध आज्ञाधीन होने के कारण रसावस्था तक नहीं पहुँच पाता । भावरूप में व्यक्षिा होकर हो रह जाता है। ५. उत्साह कार्य करने का अभिनिवेश, शौर्य आदि प्रदर्शित करने की प्रबल .इच्छा को उत्साह कहते हैं। जैसे- यदि रोके रघुनाथ न तो मैं अभिनव दृश्य दिखाऊँ । क्या है चाप सहित शंकर के मैं कैलास उठाऊँ. जनकपुरी के सहितचाप को लेकर बायें कर में, भारतभूमि घूम मै आऊँ नृप, सुनिये पल भर में।-रा० च० उ०