पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१८९

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स्थावो भाव के भेद १०१ ८. आश्चर्य अपूर्व वस्तु को देखने-सुनने या स्मरण करने से उत्पन्न मनोविकार को आश्चर्य कहते हैं। जैसे- फैल गयी चर्चा तमाम क्षण भर में कैदी वीर काफिर के भीम बाहुबल की। कोई कहता था-यह जादू का तमाशा है, कोई कहता था-असंभव त्रिकाल में तोड़ देना सात तवे एक-एक मन का एक बाण मार के... .... ...-आर्यावर्त यहाँ तवा तोड़ने को बात में विश्वास न होने के कारण आश्चर्य भाव को 'ही व्यंजना है ; अद्भुत रस की नहीं। . तब देखो मुद्रिका मनोहर, राम नाम अंकित अति सुन्दर । चकित चितै मुद्रिक पहचानी, हर्ष विषाद हृदय अकुलानी । तुलसी यहाँ आश्चर्य स्थायी भावमात्र है । अद्भुत रस को पूर्णता नहीं। ६. निर्वेद तत्व-ज्ञान होने से सांसारिक विषयों में जो विराग-बुद्धि उत्पन्त होती है उसे निर्वेद कहते हैं। ए रे मतिमंदे सब छाडि फरफदे, ___ अब नन्द के सुनन्दे ब्रजचन्दे क्यों न बन्दे रे ।-वल्लभ यहाँ वैराग्य का उपदेश होने से निर्वेद भाव-भात्र माना जाता है। शान्त रस का पूर्ण परिपाक नहीं होता। काम से रूप, प्रताप दिनेस ते सोम से सील गनेस से माने । हरिचन्द से साँचे बड़े विधि से मघवा से महीप विषै-सुख-साने । शुक से मुनि सारद से बकता चिर जीवन लोमस ते अधिकाने । ऐसे भये तो कहा 'तुलसी' जु पै राजिवलोचन राम न जाने । रामभजन के बिना मनुष्य सर्वोपरि होने पर भी तुच्छ है, इस उक्ति में निर्वेद भाव को व्यंजनामात्र है। १०. वात्सल्य पुत्र आदि के प्रति माता-पिता आदि का जो वात्सल्य स्नेह होता है वहाँ उसे वात्सल्य कहते हैं।