पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१९२

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१०४ . काव्यदपक प्राथमिक भावना के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों और प्रालंकारिकों में मतभेद दीख पड़ता है। अद्भुत रस का स्थायी भाव विस्मय है। किन्तु मेग्डानल साहब विस्मय वा आश्चय ( Surprise ) को साधित भावना ( Derived emotion ) मानते हैं, प्रार्थामक नहीं। क्योकि इसमें भय की भावना मिश्रित है, जिससे कौतूहल, आनन्द, आदर, निज्ञासा आदि भावनाओं का प्रादुर्भाव होता है। ऐसे ही मनो- वैज्ञानिक उत्साह को भाव हो नहीं मानते । उत्साह का न तो कोई विषय हा निश्चित है और न स्वतत्र कुछ ध्येय हो। यह सब प्रकार के कार्यों की एक प्रेरक शारीरिक शक्ति-मिश्रित मानसिक शक्ति है। भानुदत्त ने भी कहा है कि उत्साह और विस्मय सब रसो में व्यभिचारी होते हैं । शोक भी प्राथमिक भावना नहीं। इसकी भी न तो कोई स्वत्त्र दिशा है और न स्वतंत्र ध्येय ही है। इसकी उत्पत्ति, पालन-वृत्त आदि सहज प्रवृत्तियों को सहचर भावना इष्टवियोग आदि से होती है। शोक- भावना को कोई स्वतंत्र प्रेरणा नही है । यह शोक प्रियवस्तु-मूलक प्रेम से ही उत्पन्न होता है। __ मनोवैज्ञानिक शंड ने भावना के चार प्रमुख संघ-क्रोध, आनन्द, भय और शोक तथा दो मुख्वकल्प संघ-जुगुप्ता और विस्मय माने हैं। उनके मत से ये ही मानवी छह भावनाएँ हैं। उनमें शृङ्गार रस के रति नामक स्थायी भाव का नाम ही नही है। प्रोफेसर जोग शंड के आधार पर ही कहते हैं कि रति मूल भावना नहीं है और न उतनो वह व्यापक है। फिर भी स्थायी भावों में उसके महत्व का कारण यह है कि इच्छा-संघात में होनेवाली सारी भावनाओं में रति भावना प्रबल और व्यापक है। अर्थात् रति एक इच्छा है। अन्यान्य मूल भावनाओं में इच्छा का अभाव है और इच्छा हो रति का आधार है। पर मेग्डानल ने इसका खडन कर दिया है। इस प्रकार स्थायी भाव वा स्थिरवृत्ति के विवेचन में प्राच्य और पाश्चात्य विवेचक एकमत नहीं होते। इसका कारण उनके दो प्रकार के दृष्टिकोण ही हैं। प्राच्यों का दृष्टिकोण दार्शनिक है और पाश्चात्यों का मनोवैज्ञानिक । दूसरी बात यह कि काव्यशास्त्र भावों का वर्गीकरण रस को अनुकूलता और प्रतिकूलता के तत्त्व पर करता है और मानस-शास्त्र प्राथमिकता और साधिकता के तत्त्व पर करता है। फिर भी पाश्चात्य वैज्ञानिक किसी न किसी रूप में हमारे ही नौ-दश भावों को रस- रूप में महत्त्व देते हैं और उनको स्थिरता को मानते हैं । । र उत्साहविस्मयौ सरसेषु व्यभिचारिणौ-रसतरंगिणी २ अभिनव काव्यप्रकाश ( मराठी ) ७५ पृष्ठ