पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१९४

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१०६ काव्यदर्पण त्याज्य हैं।' मानसशास्त्र का सिद्धान्त है कि सारी सहज-प्रवृत्तियों और उनकी सहचर भावनाओं के मूल में स्वरक्षण और स्ववंशरक्षण की प्रवृत्ति है । यद्यपि इस कसौटी का विज्ञान भी सहायक है, तथापि इसमें धार्मिक भावना काम करती है। इससे इस कसौटी को उपेक्षा जाती है। (४) सर्वजन-सुलभत्व-ऐसे भाव, जो सर्वसाधारण में सुलभ हों। कुछ भाव ऐसे है जो मूलत: मनुष्यमात्र में उत्पन्न होते हैं। ये सहजात होते हैं। ये वासना-रूप से विद्यमान रहते हैं। क्योंकि, रति आदि वासना के बिना आस्वाद मिलता हो नही। काव्यानन्द या स्थायी भाव का जो सुख मिलता है वह वैयक्तिक नहीं होता। यह रस सर्वजन-सुलभ होता है, भले ही वासना की कमी-वेशी से उसको अनुभूति कम-बेश हो । ऐसे सभी भाव नहीं हो सकते । (५) उचित-विषय-निष्ठत्व-विषय के औचित्य को सभी मानते हैं। भावना को तीव्र रूप में आस्वादयोग्य बनाने के लिए उचित विषय का ग्रहण आवश्यक है । कुरूपा को रूपवती के रूप में वर्णन करने से रसनीयता कभी नहीं आ सकती। अतः, भावना को स्थायी रूप देने के लिए विषय को उचित, उत्कट, महत्त्वपूर्ण और मानवजीवन से सम्बन्ध रखनेवाला होना चाहिये। (६) मनोरंजन की अधिकता-रस के लिए यह आवश्यक है कि उसमें मनोरंजन की अधिक मात्रा विद्यमान हो; क्योंकि काव्य का एक उद्देश्य प्रानन्द- दान भी है। ___ मनोविज्ञान की दृष्टि से भी प्रास्वाद्यता और उचितविषयनिष्ठता को महत्ता है प्राथमिक भावना सार्वत्रिक और उत्कट होती है। पर यह सिद्धान्त सवत्र लागू नहीं होता। शोक प्राथमिक भावना नहीं, पर इसकी श्रास्वाद्यता और उत्कटता प्रत्यक्ष है। उदात्तीकरण ( Sublimation) मानव-जीवन को उन्नत बनानेवाला तत्त्व है। इससे मानव-मन की वृद्धि और सौन्दर्य-दृष्टि विकसित होती है। जिस भावना में यह तत्त्व हो वह स्थायित्य को प्राप्त कर सकता है। हमारे रसशास्त्रियों ने उदात्त नामक रस की कल्पना की है। इस प्रकार की कसौटो पर करने से रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्खा, विस्मय, शम, वात्सल्य और भक्ति नामक ११ स्थायी भाव सिद्ध होते हैं । १ चतुर्वगतरी प्राप्यपरिहार्यों क्रमावत: | काव्यालंकार सा० सं० स्थायिभाव एव तथा चर्षणापात्रम् । तत्र पुरुषार्थनिष्ठाः काश्चित्संविद इनि' प्रधानम् | -अभिनवगुप्त २ न जायते तदास्वादो विना रत्यादिवासनम् । सा० दर्पण ३ स्थापनस्तु स्सोमावः भौचित्वादुच्चते। म. गुप्त