पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१९६

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५१०८ काव्यदर्पण व्यभिचारियों का नहीं। व्यभिचारियो में व्यभिचार भाव ही हैं। स्थायी यथास्थान दोनो हो सकते हैं, पर व्यभिचारी कहीं स्थायी नहीं हो सकते।' पण्डितराज का शंका-समाधान भी यहां ध्यान देने योग्य है। वह ऐसा है- "ये रति आदि भाव किसी भी काव्यादिक में उसकी समाप्ति-पर्यन्त स्थिर रहते हैं, अतः इनको स्थायी भाव कहते हैं । आप कहेंगे कि ये तो चित्तवृत्ति-रूप है; अतएव तत्काल नष्ट हो जानेवाले पदार्थ है। इस कारण इनका स्थिर होना दुर्लभ है, फिर -इन्हें स्थायी कैसे कहा जा सकता है ? और यदि वासना-रूप से इनको स्थिर माना जाय तो व्यभिचारी भाव भी हमारे अन्तःकरण में वासना-रूप से विद्यमान रहते हैं; अतः वे भी स्थायी भाव हो जायेंगे। इसका उत्तर यह है कि यहाँ वासना-रूप में इन भावों का बार-बार अभिव्यक्त होना हो स्थिर पद का अर्थ है । व्यभिचारी भावों में यह बात नहीं होती; क्योंकि उनको चमक बिजली को चमक को तरह अस्थिर होती है । अतः वे स्थायी भाव नहीं कइला सकते ।" संचारी भाव श्रास्वाद्यमान स्थायी भाव के सहायक होते हैं। स्थायी भाव के समान इनको कोई स्वतंत्र प्रास्वादयोग्यता नहीं है । साहित्य-शास्त्रियों का यह भी कहना है कि संचारियों का भेद नित्य नहीं, नैमित्तिक है और वह परिपोष्य और परिपोषक भाव से है। स्थानी भाव सहचर वा सहजात है और संचारी भाव आगन्तुक है। बाइसवी छाया भावों का भेदप्रदर्शन शंका और भय-इन दोनों भावों के बीच अनिष्ट-भावना आदि के पाशव समान-से रहते हैं। भय में वे आशय पूर्णतः पुष्ट होते हैं और शंका में मन को अशान्ति, आकुलता आदि रहते भी भय के भाव का एक धुंधला श्रालोक ही मन में आता है। शंका में भय को संभावनामात्र ही संभव है; क्योंकि उसमें सन्देह होता है, निश्चय नहीं। त्रास और भय-बों डरने का भाव दोनों में तुल्य है, किन्तु त्रास में एकाएक-अचानक-भय का उत्थान होता है। किन्तु भय में आकस्मिकता नहीं होती। वह अपने प्रभाव को सहूलियत से फैलाता है। ठीक इसके विरुद्ध त्रास शरीर को बिजली के स्पर्श-अधा सहबा झन्ना देता है। १ स्थावित्व स्थापिग्वेष प्रतिनियतं न व्यभिचारिषु। व्यभिचारित्वं मभिचारिष्वेव, नेतरपोः। तत्र स्थाविभावामुभयो गतिः । न व्यभिचारिणाम् । ते नित्यं व्यभिचारिण एव न गातु कदाचित् स्वाविनः प्रकल्पन्ते । व्यक्तिविवेक ,