पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२०३

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'विभव आदि रस नही ११५ सापराध होने के कारण संभोग शृङ्गार में नायक की गणना नहीं की जा सकती। अतः यहाँ संचारी के द्वारा विभाव, अनुभाव का आक्षेप हो जाता है। एक विभाव और अनुभाव का उदाहरण लें- पर न जाने मैं किसी के स्वप्न-सी क्यों खो रही हूँ, आस ले, अनुराग ले, उत्ताल मानस में प्रलय भर; किसी घन के विन्दु-सी किसलय, कुसुम तृण ताल में गिर और गिर अंगार पर स्मृति चिन्ह हाहाकार से ? इस नदी की लहर-सी टकरा रही, छितरा रही हूँ। और बहती जा रही अज्ञात पथ में भूल सब कुछ भूल सब अपना पराया स्मृति विकल का भार लेकर ढो रही हूँ, क्या न जाने क्या न जाने खो रही हूँ।-उ० शं० भट्ट अपने को खो जाना, मानस में प्रलय भरना, धन-विन्दु-सा गिरना, नदी को लहर-सी टकराना, छितराना, बहना, भार ढोना आदि अनुभाव ही अनुभाव हैं। राधा श्रालंबन विभाव है । राधा की जब ऐसी अवस्था है तब मोह, चिन्ता, दीनता, आवेग, आदि संचारी का आक्षेप होना स्वाभाविक है । उद्दीपन का भी अभाव है, घर धन के विन्दु-सी, नदी को लहर-त्री, दोनों उपमा के रूप में आये है। किन्तु, इनसे राधा को विकलता बढ़ती है। इससे उद्दीपन विभाव का भी आक्षेप हो जाता है। अब अनुभाव और संचारी का उदाहरण लें- रुधिर निकलता है अभी तन में भी है मास । भूखे भी हो गरुड़ तुम खावो सहित हुलास ।-अनुवाद इसमें जोमूतवाहन का वाक्य अनुभाव है और धृति आदि संचारी हैं। पर है नहीं श्रालंबन और उद्दीपन । शंखचूड़ के स्थान पर जीमूतवाहन आया है। इससे शंखचूड़ आलंबन और उसको गरुड़ के खाने के लिए उतको दयनीय दशा ही उद्दीपन है। ये दोनों नहीं हैं, पर इनका आक्षेप हो जाता है। इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये । छब्बीसवीं छाया विभाव आदि रस नहीं किसी-किसी प्राचीन पंडित का मत है कि विभाव ही रस है ; किन्गु ऐसी बात नही है। प्रारंभ में जब रसास्वाद-रूप माना गया तब स्थूल बुद्धिवालो ने यह निर्णय