पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२०६

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११८ कान्यदर्पण चैतन्य का विषय होना-उसके द्वारा प्रकाशित होना। जैसे ढका हुआ दीपक ढक्कन के हटा देने पर पदार्थों को प्रकाशित करता है और स्वयं भी प्रकाशित होता है उसी प्रकार आत्मा का चैतन्य विभावादि से मिश्रित रति आदि भाव को प्रकाशित करता है और स्वयं प्रकाशित होता है । इसके प्रकाशक वा व्यञ्जक विभाव, अनुभाव और संचारी है और रति श्रादि स्थायी भाव प्रकाश्य व्यंग्य हैं। अब यहाँ यह शंका होती है कि प्रकाशित तो वही वस्तु होती है, जो पूर्व से हो विद्यमान हो। दीपक से घड़ा तभी प्रकाशित होगा जब कि उस स्थान पर वह पहले ही से विद्यमान हो; परन्तु रस के विषय में यह दृष्टान्त ठीक नहीं घटता; क्योकि विभावादि की भावना के पूर्व रस का अस्तित्व नहीं रहता। फिर असत् वस्तु का प्रकाश कैसे होगा? इसका उत्तर यह है कि कोई आवश्यक नही कि विद्यमान वस्तु को ही कमत्व प्राप्त हो ; क्योंकि कर्म अनेक प्रकार के हैं। जब हम कहते हैं कि 'घड़ा बनाओ' तो बनने के पहले घड़े का अस्तित्व कहाँ रहता है। फिर भी हम घड़े का अस्तित्व मान लेते हैं। इसीसे लोचनकार ने कहा है कि रस प्रतीत होते हैं। यह वैसा ही व्यवहार है जैसा कहते है कि 'भात पकानो'। भात का अस्तित्व न रहते भी अर्थात् चावल रहते ही वह भात कहलाने लगता है, वैग ही प्रतीति के पूर्व, रस के न रहने पर मौ, प्रतीयमान रस का, रस प्रतीत होता है, यह व्यवहार होता है। इससे यह निश्चय है कि रस प्रतीत होते हैं । प्रतीति के पूर्व रस की सत्ता नहीं रहती। दर्पणकार ने अरुचिपूर्वक दूसरा दृष्टान्त देकर इसका यो समाधान किया है कि दीप-घट की भांति रस का व्यक्त होना नहीं है; किन्तु दभ्यादि-न्याय से रूपान्तर में परिणत होकर रस व्यक्त होता है। कहने का अभिप्राय यह कि दूध में मट्ठा डालने पर चखने से दूध का भी स्वाद ज्ञात होता है और म? का भी। इसमें स्वरूप-भेद भी रहता है । कुछ काल तक यह बात रहती है। इसके उपरान्त न तो दूध का हो रूप रह जाता है और न म8 का हो । प्रत्युत दोनों मिलकर दही के रूप में दृष्टि- गोचर होते हैं। इसी प्रकार विभाव, अनुभाव, संचारी, जो मटे के स्थान पर रस के साधन-स्वरूप हैं और रति श्रादि स्थायी, जो दूध के स्थान पर साध्य-स्वरूप हैं, तभी तक पृथक्-पृथक प्रतीत होते हैं जब तक भावना की तीव्रता से एकाकार होकर दही की भाँति रस-रूप में परिपत नहीं हो जाते। व्याक विभावादि और व्यंग्य स्थायी सभी एक ही ज्ञान के विषय हैं। अतः यह समूहालम्बन ज्ञान है । समूहालम्बन-ज्ञान में एक साथ अनेक पदार्थ प्रतीत होते हैं। रस में भी यही बात है । अतः यह कहा जा सकता है कि समूहालम्बन-ज्ञान हो रलं हैं और वह व्यक्त होता है।