पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२०७

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सख-निष्पत्ति में आरोपवाद ११६ यही कारण है कि प्राचार्यों ने प्रपानक रस के समान रस को आस्वाद- स्वरूप बताया है। प्रपानक का एक रूप प्राजक्ल का अमझोरा है। यह भाग में पकाये कच्चे श्राम के रस में चीनी, भूना जीरा और हीग, नमक, गोलमिर्च, पुदीना आदि देकर बनाया जाता है। इन वस्तुओं का पृथक्-पृथक् स्वाद होता है; किन्तु सम्मिलित रूप में इनके स्वाद से प्रपानक का जैसा एक विलक्षण स्वाद हो जाता है वैसा ही विभावादि के सम्मेलन से स्थायी भाव का एक अपूर्व आस्वाद हो जाता है, जो यिभावादि के पृथक्-पृथक् श्रास्वाद से विलक्षण होता है। आचार्यों के रस को प्रपानक रस के समान चय॑माण२ (आस्वाद्यमान) कहने का अभिप्राय यही है कि पृथक्-पृथक प्रतीयमान हेतुस्वरूप विभावादि भावना को तीव्रता और व्यञ्जना की महत्ता से अखण्ड एक रस के रूप में परिणत हो जाते हैं। रस-निष्पत्ति में आरोपवाद ____भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र के एक सूत्र में रस की परिभाषा दी है जो इस प्रकार है- "विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः । अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी के संयोग से रस-निष्पति होती है । इसमें 'संयोग' और 'निष्पत्ति' ऐसे शब्द हैं, जिनकी व्याख्या भिन्न-भिन्न प्राचार्यों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से की है और उनसे रस-सम्बन्धी भिन्न-भिन्न मत स्थापित हो गये हैं। उनमें चार मुख्य हैं-आरोपवाद, अनुमानवाद, भोगवाद और अभिव्यक्तिवाद । भट्टलोल्लट आदि का आरोपवाद इनका मत मीमांसा-दर्शन के अनुसार है। अन्य वस्तु में अन्य वस्तु के धर्म को बुद्धि लाने का नाम आरोप है । अभिप्राय यह कि एक वस्तु को दूसरी वस्तु १ ततः सम्मिलितः सर्वो विभावादि सचेतसाम् ।। प्रपानकरसन्यायच्चयमाणो रसो मवेत् ॥--साहित्यदर्पण २ चय॑माणतैकद्वार ""पानकरसन्यायेन चळमाणः।-काव्यप्रकाश चळमाण से ही 'चिबाना' शब्द बना है। कोई वस्तु जब तक चिवाई नहीं जाती तब तक रस नहीं मिलता, खाने में मजा नहीं आता। कोई वस्तु यों ही निगल जाने से उस वस्तु का स्वाद नहीं मिलता, मिलता तभी जब यह चवायी जाती है । शात होता है, 'चळमाण' के प्रयोग के समय आचार्यों के मन में यह बात पैठी हुई थी।