पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२१२

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१२४ काव्यदर्पण अभिनवगुप्त का अभिव्यक्तिवाद जका मत है कि रति श्रादि स्थायी भाव सामाजिकों के अन्तःकरण में वासना या संस्कार-रूप से वर्तमान रहते हैं। वे ही विभावादिकों के संयोग से-काव्य या नाटक के श्रवण या दर्शन से व्यजनावृत्ति के अलौकिक विभावन व्यापार द्वारा रसानुभव-रूप में उबुद्ध होते हैं। इनके मत से सयोग' का अर्थ व्यग्य-व्यंजक- प्रकाश्व-प्रकाशक सम्बन्ध है और निष्पत्ति का अर्थ अभिव्यक्ति है। अभिनवगुप्त साधारणीकरण को मानते हैं पर उसे भावना का व्यापार नहीं, व्यंजना का विभावनव्यापार बताते हैं। उसीसे सहृदय सामाजिक काव्यनाटक के दुष्यन्त-शकुन्तला आदि को अपने से अभिन्न समझते हुए उनके प्रेमव्यापार का अनुभव अभिन्नता से करते हैं। अभिप्राय यह कि रसव्यक्ति के मूलभूत विभावादि में रस व्यक्त करने की जो शक्ति है वह व्यक्तिगत विशेष सम्बन्ध को दूर कर रसास्वाद करानेवाला साधारणीकरण है। इनके सिद्धान्त से यह समस्या सहज ही सुलझ जाती है कि हम दूसरे के श्रानन्द से कैसे आनन्दित होते हैं। काव्य के पठन-पाठन तथा नाटक-सिनेमा के दर्शन से, अर्थात् काव्यनाटको के विभावादि व्यंजकों के संयोग से सामाजिकों के हृदयस्थ रति श्रादि को अव्यक्त वासना वैसे हो अभिव्यक्त हो जाती है-फूट पड़ती है जैसे मिट्टी के पके हुए पात्र में पहले से ही वर्तमान गंध जल के छींटों के संयोग से व्यक्त हो जाती है। ____ इस प्रकार स्पष्ट है कि रस की उत्पत्ति नहीं होती, बल्कि अव्यक्त भाव की अभिव्यक्ति होती है । वासना का जाग्रत होना ही रसास्वाद है। बत्तीसवीं छाया रसनिष्पत्ति में नवीन विद्वानों का मत पण्डितराज जगन्नाथ ने साहित्य-शास्त्र के नवीन विद्वानों के नाम पर जो मत उद्धृत किया है वह यहाँ 'हिन्दी रसगंगाधर' से उद्धृत किया जाता है। "काव्य में कवि के द्वारा और नाटक में नट के द्वारा जब विभाव श्रादि । प्रकाशित कर दिये जाते हैं, वे उन्हें सहृदयों के सामने उपस्थित कर चुकते हैं तब हमें व्यंजनावृत्ति के द्वारा, दुष्यंत आदि को जो शकुन्तला आदि के विषय में रति थी, उसका ज्ञान होता है-हमारी समझ में यह आता है कि दुष्यन्त आदि का शकुन्तला श्रादि के साथ प्रेम था। तदनन्तर सहृदयता के कारण एक प्रकार की भावना उत्पन्न होती है, जो कि एक प्रकार का दोष है। इस दोष के प्रभाव से हमारी अन्तरारमा कल्पित दुष्यन्तख से आच्छादित हो जाता है अर्थात् हम उस