पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२१४

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१२६ काव्यदर्पण संभवतः बँगला से आया है । इसका प्रयोग भाव के अनुभव करने–'फोल' करने के अर्थ में होने लगा है। अनुभूति को रस कहते हैं। अनुभूति के स्थान में प्रास्वादन, रस-चर्बणा आदि शब्दों के प्रयोग हमारे यहाँ मिलते हैं। अनुभूति के निम्नलिखित कई प्रकार होते है- प्रत्यक्षानुभूति-प्रत्यक्षानुभूति वह है, जिससे हमारा व्यक्तिगत साक्षात् सम्बन्ध रहता है। माता-पिता का वात्सल्य, बड़ों का स्नेह, मित्रों को मैत्री विरोधियों का विरोध, शत्रुओं के क्रोध और द्वेष आदि व्यक्तिगत भावों को जो अनुभूति होती है वह प्रत्यक्षानुभूति कहलाती है । हम वाह्य जगत् में जो देखते-सुनते हैं, अनुभव करते हैं उन्हीं को लेकर अनु- भूति होती है। दृश्य जगत से ही ज्ञान का संचय होता है। जिसे देखा नहीं, सुना नहीं और अनुमान नहीं, उसका ज्ञान कैसे संभव हो सकता है । अतः हमारे द्वारा जो कुछ गृहीत या अनुभूत है वही हमारे ज्ञान की वस्तु है, अनुभव की वस्तु है । प्रातिभ अनुभूति-क्रोचे के मतानुसार प्रातिभ अनुभूति वा सहजानुभूति हो काव्य का प्राण है। अनुभूति और सहजानुभूति दो भिन्न-भिन्न वस्तुएं है। काव्य- रचना की स्थिात में आने के पहले कवि को प्रेरक शक्तियो को दो प्रतिक्रियाएँ होती हैं। पहली स्थिति कवि की अनुभूति है। यह अनुभूति उस विशेष स्थिति में होती है जब कवि के सहृदय अन्तर में जीवन और जगत् प्रतिफलित होते हैं। अनुभूतिकाल में कवि को सृष्टिचेतना अभिभूत होती है। उस समय रचना की प्रेरणा असंभव है। जब कवि अनुभूति से अलग हो जाता है तो उस अनुभूति को एक स्मृति रह जाती है और तब उसे व्यक्त करने को प्रेरणा मिलती है। इस व्यक्तीकरण में सहजानुभूति होती है क्योंकि अनुभूति में हमारा ज्ञान विचार के रूप में रक्षित रहता है और सहजानुभूति में उसो ज्ञान का एक विशेष चित्र कल्पना में स्पष्ट हो जाता है। काव्यानुभूति-हम जिन प्रेम, करुण, क्रोध, घृणा श्रादि भावों का प्रत्यक्ष अनुभव करते है उनको अनुभूति काव्य के पढ़ने-सुनने वा नाटक के देखने से भी होती है। पहले की अनुभूति में हमारे मन की अवस्था एक-सी नहीं रहती। जो प्रेम, हर्ष श्रादि भाव हमारे मन के अनुकूल होते हैं उनसे सुख प्राप्त होता है और जो शोक, क्रोध आदि भाव हमारे मन के प्रतिकूल होते हैं उनसे दुःख प्राप्त होता है। हम एक में प्रवृत्त होना चाहते हैं और एक से निवृत्त । इस प्रकार प्रत्यक्षानु- भूति में सुखात्मक और दुःखात्मक दो प्रकार के भाव अनुभूत होते हैं, किन्तु काव्यानुभूति में यह भेद मिट जाता है। काव्य-नाटक में प्रत्यक्षानुभूति का वह रूप नहीं रह जाता । वह कवि को सहजानुभूति के रूप में ढल जाता है। उसमें रमणीयता श्रा जाती है। यद्यमि इन दोनों के मूल में वस्तुतः कुछ भेद प्रतीत नहीं होता;