पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२१७

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१२६ काव्यानन्द के कारण वहां हम उनके मनोविकारों के साथ.समरस नहीं होते। फिर भी जो हमें अानन्द होता है उसका कारण यह है कि हमारा अनुभव उनके साथ मिल जाता है, अथवा उनके विषय में एक अपनी धारणा बना लते हैं। ऐसे स्थानों में साधारणीकरण वा तादात्म्य का प्रयोग ठीक नहीं। यदि हो भी तो यही समझना चाहिये कि हमें आनन्द आया वा हमारा मन उसमें एकाग्र हो गया। ससार में बहुत सी ऐसी वस्तुएँ हमारे चारो ओर दिखाई देती हैं, जिनके संबंध में हमारी एक प्रकार की भावना हो जाती है। किसी के प्रति प्रेम उमड़ता है, तो किसी के प्रति बैर, किसी के प्रति श्रद्धाभक्ति होती है, तो किसी के प्रति अनादर, अश्रद्धा । पुरुष हुआ तो शत्रु, मित्र, बंधु, पड़ोसो, नेता आदि का और स्त्री हुई तो मा, बेटी, बहन, पड़ोसिन, स्त्री, सेविका आदि का सम्बन्ध जोड़ लेते हैं। उससे मन में एक भावना तैयार हो जाती है। इसी व्यक्तिगत सम्बन्ध वा अपने अनुभव के छल से हम काव्य वा नाटक के पात्रों के सुख-दुःख से समरस होते है। उनके साथ हमारा मेल बैठ जाता है और उनके साथ साधारणीकरण होने से हमें श्रानन्द होता है। विश्वामित्र को दुष्टता के सुन्दर चित्रण से जो आनन्द होता है, वह प्रत्यभिज्ञामूलक है। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है पूर्वावस्था के संस्कार से सहकारी इन्द्रिय द्वारा उत्पन्न एक प्रकार का ज्ञान । जैसे कि यह वही घड़ा है, जो पहले मेरे पास थी। अभिप्राय यह कि जो वस्तु हम पहले देख चुके हैं, उसका संस्कार हममें वर्तमान रहता है, अथात् पूर्वानुभूत वस्तु के सुख-दुखात्मक जो हमारा अनुभव है वह मिटता नहीं । काव्यनाटक में वैसा ही कुछ पढ़ने-देखने से उसका जो पुनः प्रत्यय हो जाता है, उसीसे श्रानन्द होता है । इसको सहानुभूति और श्रात्मौपम्य को संज्ञा भी दी जा सकती है । जहाँ पूर्वावस्था का सस्कार नहीं, जहाँ अननुभूत प्रसंग है वहां कैसे अानन्द होगा? इसका समाधान यह है कि वहां या तो अतृप्त इच्छा की पूत्ति से हमें आनन्द होता है या प्रसंग-विशेष पर नये-नये अनुभव प्राप्त करने के कुतूहल से होता है। सिनेमा के जो प्रसिद्ध सितारे हैं उनकी प्रसिद्धि का कारण क्या है ? वही कि अनुकरण करने में वे अत्यन्त पटु हैं। नाटकीय पात्रों की भूमिका में वे पात्रो को गतिविधि, आचरण, चेष्टा आदि का ऐसा अभिनय करते हैं कि उनके अनुकरण से हमें श्रानन्द प्राप्त होता है। यह आनन्द अनुकृतिजन्य ही होता है। प्राच्य और पाश्चात्य समीक्षक इससे सहमत हैं। कारण यह कि एक के स्वाभाविक गुण- दोष का अन्यत्र तत्तुल्य परिदर्शन आनन्द का कारण होता ही है। विक्रमादित्य नामक चित्रपट में विक्रम के वैभवशाली राजभवन तथा उनके दरबार के तात्कालिक वर्णन का जो चित्र उपस्थित होता है उससे हमें कल्पनाजनित आनन्द का अनुभव होता है। का०द०-१४