पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कृत्रिम प्रदर्शन तो हास्य-रस मे भी जा सकता है । पैनी दृष्टि होने से ही रस की परख हो सकती है । जैसे-तैसे जो कुछ लिख देना रस-विवेचन नही कहा जा सकता। ६. राजनीति से सम्बन्धित होने के कारण उक्तियाँ वीर-रस की समझी गय, यह कहना तो नितान्त असगत है। इससे रस की छीछालेदर होती है, उसकी अप्रतिष्ठा होती है। राज्नीतिक उक्तियाँ विचार की दृष्टि से भली-बुरी कही जा सकती है। वहाँ रस का क्या काम ? हॉ, राजनीतिक विचारो को कविता की भाषा मे कहा जाय, तो उनमे रस आ सकता है; पर उसी दशा मे जब विचार से भाव ढब न जाय । 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है', इस उक्ति मे भावना है, पर रस नहीं । ऐसी उक्तियो मे भी यह विचार करना होगा कि रस के साधक-साधन पूर्णतः प्रतिपादित है या नही। केवल रान्नीति का सम्बन्ध वीर-रस का साधक नहीं ; वे उक्तियाँ कैसी ही क्यो न हो। जब समालोचना के नये नये सिद्धान्त साहित्य के समझने में वैसे सहायक नहीं होते तो रस-सिद्धान्त ने क्या अपराध किया है जिसको हजारो वरसो से परीक्षा हो चुकी है ? साहित्यिको मे यह अविदित नहीं कि अनुकरणवाद से लेकर आज तक कितने पाश्चात्य सिद्धान्त–'इज्म उत्पन्न हुए; फूलने-फलने की बात कौन कहे, विकसे तक नही और बरसाती कीडो की भाँति क्षणजीवी हो गये। यदि एक ही सिद्धान्न से परख होती तो समालोचना के इतने भेद नहीं होते, होते ही नहीं, होते जा रह है। क्या इनमे से कोई रस-सिद्धान्त की समकक्षता कर सक्ता है ? पाश्चात्यो ने भी इसका लोहा मान लिया है । प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् सिल्वॉ लेवी कहते है- 'कला के क्षेत्र मे भारतीय प्रतिभा ने संसार को एक नूतन और श्रेष्ठ दान दिया है, जिसे प्रतीक-प ने 'रस शब्द द्वारा प्रकट कर सकते है और जिते एक वाक्य मे इस प्रकार कह सकते है कि 'कवि प्रकट (express ) नहीं करता, व्यजित वा ध्वनित (suggest ) करता है ।' नौ रसो की मेड बॉधने को कोई नही कहता । नौ रसों की महिमा तो इसलिए है कि इनके भाव सहजात है, इनमे व्यापकता है, स्थायित्व है और ये सर्वजनोपभोग्य है। कुछ प्राचार्यों ने जैसे एक-एक रस को प्रधानता दी है वैसे ठुछ प्राचाया ने इनका विस्तार भी किया है । भरत के आठ रसो मे अपनी प्रभुता से 'शान्त' ने भी अपना स्थान बना लिया। अब दस-ग्यारह की प्रधानता मानी जाने लगी है। सनय पर और और भी आगे आयेगे। युग के अनुकूल प्रगतिवादी कुछ नये सिद्धान्त दृढ़ निकाले तो गौरव की वात होगी। पर, यह सहज साधना से संभव नही। शुक्लजी- जैसे साधक समालोचक भी इस विषय मे असमर्थ ही रहे । १. 'विशाल भारत', जनवरी, १६३८, पृ० ६०