साधारणीकरण और व्यक्तिवैचित्र्य १३७ विचारणीय है क्योंकि कहाँ शकुन्तला के नायक दुष्यन्त चक्रवर्ती राजा और कहां हम सामान्य मनुष्य । दोष की कल्पना कहां तक इस पर पर्दा डाल सकती है ! ___सम्बन्ध-विशेष का त्याग या उससे स्वतन्त्र होना ही साधारणीकरण है, जैसा कि प्राचार्य की व्याख्या से विदित है । समझिये कि वास्तव जगत् की घटनाओं में जो पारस्परिक सम्बन्ध होता है उनमें जैसे एक-दो के तिरोधान होने से सभी सम्बन्ध तिरोहित हो जाते हैं वैसे ही वास्तव जगत् के देश, काल, नायक आदि के मन से तिरोहित होते ही उस सम्बन्ध के सभी विशेष स्वभाव तिरोहित हो जाते हैं और हृदय-सवादात्मक अर्थ के भाव से रसोद्रेक होने लगता है। साधारणीकरण के इस मूलमंत्र को छोड़ अनेक विद्वान् विपरीत दिशा की ओर भटकते दिखाई पड़ते है। श्यामसुन्दरदासजी कहते हैं कि साधारणीकरण कवि अथवा भावक की चित्तवृत्ति से सम्बन्ध रखता है। चित्त के एकाग्र और साधारणीकृत होने पर उसे सभी कुछ साधारण प्रतीत होने लगता है। 'श्राचार्यों का अन्तिम सिद्धान्त तो यही है जो हमने माना है । हमारा हृदय साधारणीकरण करता है। ___हम तो कहेंगे कि यह अन्तिम सिद्धान्त नहीं है । प्राचार्यों की पौढ़ी में पंडित- राज अन्तिम माने जाते हैं ; पर वे इस सम्बन्ध में दूसरी ही बात कहते हैं । हृदय के साधारणीकरण की बात कहने के समय अभिनव गुप्त का यह वाक्यांश 'हृदय- संवादात्मक-सहृदयत्व-बलात्' उनके हृदय में काम करता रहा। अभिनव गुप्त यह भी कहते हैं कि भाव के चित्त में उपस्थित होने पर अनादिकाल से संचित किसी न किसी वासना के मेल से ही रस-रूप में परिपुष्ट होता है। फिर यहाँ वासना को ही साधारणीकरण क्यों न कहा जाय ? यहां यह शंका भी हो सकती है कि हमारा हृदय कवि के, आश्रय के, आलंबन के भाव के किसके साथ साधारणीकरण करता है । अतः इन ग्राम-मार्गों को छोड़कर भट्टनायक के गजमार्ग पर हो चलना ठीक है। उनचालीसवीं छाया साधारणीकरण और व्यक्तिवैचित्र्य "कोई क्रोधी या क र प्रकृति का पात्र यदि किसी निरपराध या दीन पर क्रोध को प्रबन व्यञ्जना कर रहा है तो श्रोता या दर्शक के मन में क्रोध का रसात्मक १ योऽर्थो हृदयसंवादी तस्यभावो रसोद्भवः । २ अतएव सर्वसामाजिकाना मेकचनतेव प्रतिपत्तेः सुतरां रसपरिपोषाय सर्वेषामननादि वासनाचित्री कृत चेतसां वासनासंवादान् ।
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