पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२३०

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साधारणीकरण के मूलतत्त्व साधारणीकरण का एक दूसरा स्तर भी होता है जो वातावरण के स्तर से बहुत ऊँचा होता है। इसमें जो भाव-भावनाएँ होती हैं वे मानव-मानव की होती हैं। इस स्तर के भाव एक ही होते हैं। ये भाव मानव-मानव का मेद नहीं करते, सभी के लिए एक-से प्रतीत होते हैं। ऐसे भावों के कल्पक समाजविशेष, जाति- विशेष या देशविशेष के नहीं होते, विश्व के नही होते, विश्व के होते है। 'एकोऽहं बहु स्याम' तक यह विचार पहुँच जाता है। इसका दार्शनिक दृष्टिकोण बहुत जटिल और बड़ा हो विवादपूर्ण है। परमात्म-आत्म-विवेचन को इति को कोई नहीं पहुँच सका और सभी 'नेति-नेति' हो कहते है। किन्तु यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि हम सबों में, मानवमात्र में, एक ही 'परमात्मतत्त्व है और हम सब उसी लीलामय की लीला के विकास हैं। इस प्रकार मानव-हृदय में एक ही परमात्मा का अंश विद्यमान है और वह ज्ञान का भी मूल है। फिर एक हृदय का दूसरे हृदय से संवाद होना-मेल खाना स्वाभाविक ही नहीं, वैज्ञानिक भी है। इस कारण साधारणीकरण सहज होता है। यहां अनेक प्रकार के प्रश्न उठाये जा सकते है; किन्तु सबका समाधान यही है कि सभी मानव-हृदय एक-से नहीं होते। उनमे ईश्वरांश की अधिकता और न्यूनता भी होती है, जिसके साथ प्रोक्तन संस्कार भी लिपटा रहता है। ज्ञान का न्यूनाधिक भी प्रभाव दिखलाता है। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिये कि आत्मा को दिव्यता, महानता आटि गुणो पर संसार के संपर्क से मलिनता, क्षुद्रता आदि अवगुणों का पर्दा भी पड़ जाता है। गोतार्जाल विश्ववरेण्य क्यों हुई? उसके भावों के साथ विश्व-मानव का हृदय-सवाद क्यो ? उसके साथ देशी-विदेशी का भाव क्यों न रहा ? वही मानवमात्र में एक तत्त्व की विद्यमानता का कारण है, जिससे साधारणीकरण हुआ। इसीसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर विश्वकवि माने गये और उनके काव्य ने सार्वभौमिकता का पद प्राप्त किया। एकतालीसवीं छाया साधारणीकरण के मूलतत्त्व काव्य रस का व्यञ्जक है। उसमें ऐसी शक्ति रहती है, जिससे रसोद्रेक, रसानुभूति वा रस-बोध होता। वह शक्ति उसकी व्यञ्जना है । उसोसे पाठक, श्रोता या दर्शक कवि की अनुभूति को हृदयंगम करते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि काव्य में रस नहीं, बल्कि उसमें रसानुभूति के ऐसे संकेत, सूत्र वा तत्त्व