पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२३२

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लौकिक रस और अलौकिक रस १४५ कैकेयी के 'लगे वचन-बाण से हृदय में धरानाथ के -सत्यवती दशरथ को लबार-मिथ्यावादी कहनेवाली कैकेयी से हमारा साधारणोकरण नहीं होता, आश्रय के बालंबन के प्रति व्यक्त किये गये भाव से हमारा मेल नहीं खाता। अब यदि हम यह कहें कि यहाँ कवि को यह अभिप्रेत है कि कैकेयी से ऐसे हो वचन कहलाये जाय कि दशरथ को पीड़ा पहुँचे, कैकेयी की करता प्रकट हो तो इन भावों में हमारा साधारणीकरण हो जाता है ; व्यक्तिवैचित्र्य की बात भी दूर हो जाती है और प्राचार्यों के विभावादि के साथ स धारणीकरण को बात भी रह जाती है। जहाँ जैसा कवि ने जो भाव व्यक्त किया वहाँ वैसा ही हमारा हृदय हो गया। यह भी देखा जाता है कि जहाँ कोई आश्रय । विभाव) नहीं रहता वहाँ श्रालंबन के प्रति कवि के भावों के साथ ही साधारणीकरण होता है। जैसे- । सुरपति के हम ही हैं अनुचर जगत्प्राण के भी सहचर । .. मेघदूत को सजल कल्पना चातक के चिरजीवनधर ॥ अथवा कौन-कौन तुम परिहतवसना म्लानमना भूपतिता-सी वातहता विच्छिन्न लता-सी रतिधान्ता जवनिता-सी।-त इनमें 'बादल' और 'छाया' के प्रति जो भाव हैं उन्हींसे साधारणीकरण होता है। इनमें श्राश्रय कोई नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि साधारणीकरण में कवि का व्यक्ति भी बहुत कुछ काम करता है। यदि कवि लोकसाधारण भाव को नहीं अपनाता और भाषा को कमजोरी या अनुभूति के अधूरेपन से उनको व्यक्त करने में समर्थ नहीं होता तो साधारणीकरण सम्भव नहीं। इसके लिए भाषा का भावमय होना आवश्यक है, रागात्मक होना अनिवार्य है। कवि सामान्य भावों की जाति करता है। कांव को सहृदय का समानधर्मा होना चाहिये। तभी वह साधारणीकरण में समर्थ हो सकता है। बयालीसवीं छाया लौकिक रस और अलौकिक रस 'अलौकिक' शब्द ने साहित्यिको में एक भ्रम पैदा कर दिया है। वे इसका पारलौकिक स्वर्गीय श्रादि अर्थ करते है। बड़े-बड़े विद्वान् भी इसके चक्कर में पड़ गये हैं। अलौकिक का अभिप्राय न तो स्वर्गीय है और न पारलौकिक । इसका अर्थ है अलोक-सामान्य अर्थात् लौकिक वस्तु से विलक्षण । बस, केवल यही अथं । का० द०-१५