पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२३९

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१५२ काव्यदर्पण अभिप्राय यह कि कवि रसानुकूल पात्रो का निर्माण करता है। अनन्तर वह काव्य के पात्रों में भावों को भरता है, जिससे हम कहते है कि काव्य में रम है। किन्तु उसका परिणाम काव्य तक ही सीमित नहीं। वह सहृदयों के हृदय में ही उमड़कर विश्रान्ति पाता है । इस अवस्था को पहुँचने पर ही वह अलौकिकता को प्राप्त करता है। कवि और काव्य तक उसका रूप लौकिक हो रहता है। लोक में जो शोक, हष श्रादि होते है, उनसे दुःख और सुख ही होते हैं। ऐसा नहीं देखा जाता कि किसी को पुत्र-शोक हो और उसे देखकर किसी को श्रानन्द हो; किन्तु काव्य में शोक से भी श्रानन्द ही प्राप्त होता है, यदि आनन्द नहीं होता तो कोई रामायण के बनवास का प्रसंग क्यों पढ़ता ? इसका कारण उसका अलौकिक होना ही है। उसका लोक के साधारण सम्बन्ध से ऊपर उठ जाना है । कारण यह कि यह शोक अलौकिक विभावन को प्राप्त कर लेता है । ति आदि को श्रास्वादात्पत्ति-रसोद्वोध के योग्य बनाना ही विभावन' कहलाता है। लोक में जो बनवास आदि दुःख के कारण कहे जाते हैं वे यदि काव्य और नाटक में निबद्ध किये जायँ तो उसका 'कारक' शब्द से व्यवहार नहीं किया जाता ; बल्कि 'अलौकिक विभाव' शब्द से व्यवहार होता है । कारण यह कि काव्य आदि में उपनिबद्ध होने पर उन्हीं कारणों में विभावन' नामक एक अलौकिक व्यापार उत्पन्न हो जाता है। जब रंगमंच पर गोत-वाद्य होने लगता है और राम के-से वसन-आभूषण पहनकर नट प्रवेश करता है, तब कम-से-कम उस समय तो वह व्यक्तिगत विशेषता को-अपनेपन को-अवश्य भूल जाता है। उस समय के लिए उसे देश, काल सब कुछ विस्मृत हो जाता है और अपने को राम ही समझने लगता है। शोकादि के कारण दुःख का उत्पन्न होना लोकव्यवहार है। शोक के कारणों से शोक के उत्पन्न होने, हर्ष के कारणों से हर्ष के उत्पन्न होने का नियम लोक में हो किसी सीमा तक हो सकता है । यह लौकिक रस है। जब वे काव्य-निबद्ध हो जाते हैं, नाटक-सिनेमा में दिखाये जाते है, तब उक्त विभावन नाम का अलौकिक व्यापार उत्पन्न हो जाता है । अतः विभाव आदि के द्वारा उनसे आनन्द ही होता है, लोक में चाहे उनसे भले ही दुःख हो। इसीमे रस अलौकिक है। दर्पणकार ने अलौकिकत्व के नीचे लिखे अनेक कारण दिये है- (१) अलौकिक पदार्थ ज्ञाप्य होते हैं, अर्थात् दूसरी वस्तुओं के द्वारा उनका ज्ञान होता है। पर रस ज्ञाप्य नहीं होता; क्योंकि अपनो सत्ता में कभी व्यभिचरित- प्रतीति के अयोग्य नहीं होता। अर्थात् जब होता है, तब अवश्य प्रतीत होता है । घर - पट श्रादि लौकिक पदार्थ ज्ञापक से अर्थात् ज्ञान करानेवाले 'दीपक आदि में प्रकाशित होते है, वैसे ही उनके विद्यमान रहने पर भी कभी-कभी ज्ञान. नह।