पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२५१

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काव्यदर्पण कवि कलाकार है। वह एकता में अनेकता की कल्पना करता है। उन्हीं में उसकी कला विकास पाती है; सौन्दयं सृष्टि करती है। एक में अनेक भावनाओं के दिखाने में उसकी बुद्धि कुण्ठित सी हो जाती है। प्रपात को एक धारा, वह विशाल हो क्यों न हो और उसमें सहस्र धाराओं को आत्मसात् करने की शक्ति ही क्यों न हो, कला की दृष्टि से झिर-झिर झरनेवाले करने की समता नहीं कर सकती। एक ही रस में जीवन की रंगीनियाँ प्रकट नहीं होती। कलाकार 'एकमेवाद्वितीय' का उपासक नहीं होता। वह ‘एकोऽहं बहुस्याम' को उपासना करता है। रस की अनेकता की कल्पना में यही तत्त्व है । अचाय तो उनका अनुधावन ही करते हैं। छियालिसवीं छाया रस-संख्या-संकोच श्राचार्यों में रस-संख्या-विस्तार की जो भावना काम करती रही उसके विपरीत प्राचार्यों ही में नहीं, कवियों में भी रस-संख्या-संकोच की भी भावना काम करतो रही। कारण यह कि सभी भावनाएं एक-सी नहीं होती । यदि कोई प्रबल तो कोई सामान्य । यदि एक से दूसरे का काम निकल जाय तो दूसरे के अस्तित्व से क्या प्रयोजन ? जैसे विशेषता वा भिन्नता दिखलाने को-पृथक्करण की प्रवृत्ति रहो वैसे एकीकरण की प्रवृत्ति भी चलती रही। एकीकरण का कारण यह समझा जाता है कि श्रानन्द एक रूप है। वह चित्त को अचंचलता-एकाग्रता से उत्पन्न होता है । अानन्दरूप रस में भेद-भाव कैसा! अहंकार शृङ्गार ही एक रस है अहंकार ही शृङ्गार है, वही अभिमान है और वही रस है। उसोसे रति आदि भाव उत्पन्न होते हैं। अहंकार ब्रह्मा का पहला आविष्कार है और उसीसे अभिमान की उत्पत्ति बतायी जाती है। यह मनोविज्ञान के अनुकूल है । अात्मप्रवृति ( ego instinct ) एक प्रधान प्रवृत्ति है और उसका आविष्कार व्यापक रूप से होता है। अहंकार सांसारिक पदार्थों से सम्बन्ध रखता है और उन-उन पदार्थों से रति, शोक आदि भावनाएँ उद्भुत होती हैं। जब कहता हूँ कि मैं क्रोधी हूँ, शोकात हूँ, दयालु हूँ, प्रसन्न हूँ, तब रस का अनुभव होता है और 'मैं हूँ' इसमें अहंकार प्रत्यक्ष-सा हो जाता है। थोड़े में 'मैं हूँ इस प्रकार आत्मा को अपने अस्तित्व का अनुभव कराना हो आनन्द है। १. वच्च आत्मनोऽहंकारगुणाविशेष नमः सकारः सोऽभिमानः स रसः । तत एव रस्यादयो जायन्ते । शृङ्गारप्रकाश