पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२५६

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रसों का मुख्य-गौण-भाव मूलक नहीं होता । हम इच्छा नहीं करते की हमें आनन्द हो। ऐसे ही बन्धुविनाश से दुख, सान्धकार कन्दरा से भय, अबला पर अत्याचार से जो क्रोध होता है उसे इच्छा का परिणाम नहीं कहा जा सकता । जुगुप्पा और आश्चर्य को ऐसा न समझिये । पहले ही क्षण में व्याप्त होने वाली ये भावनाएं हैं। पर रति तो इच्छा पर ही निर्भर करती है । उक्त भावनाओं को-सौ रति नहीं है। बाल-वृद्ध में रति नही पायी जाती। पर शंड को तथा उनके अनुयायियों को इस भ्रान्त धारणा को “कि श्रानन्द में हास्य का और इच्छा में शृङ्गार का अन्तर्भाव हो जायगा या उनसे हो इनका सम्बन्ध है", मैग्डुगल ने छिन-भिन्न कर दिया। प्राच्य आचार्यों ने तो भावो की मूलभूतता को अपने भाव-परीक्षण का निकषं ही नहीं माना है। रसो के मुख्य और गोण भाव की परीक्षा के लिए दो बाते ध्यान में रखनी चाहिये । एक तो व्याप्यव्यापकभाव और दूसरा उपकार्योपकारकभाव । एक रस या भाव दूसरे रस या भाव से मिले होते है। भावों में सम्मिश्रण की प्रबलता है। यह भी देखा जाता है कि एक रस दूसरे का उपकारक है। दूसरे से पहले का उपकार ऐसा होता है कि वह तीव्रता से प्रास्वाद्य हो जाता है। इन्हीं बातो को ध्यान में रखकर एक रस में दूसरे रस के संचारी होने की तथा एक रस के दूसरे रस के विरोधी होने की व्यवस्था काव्यशास्त्र में दी गयी है । ___ संचारी होने की बात लिखी जा चुकी है। रस-विरोधों को दखिये-करुण, रौद्र, वीर और भयानक रसों के साथ शृङ्गार का; भयानक और करुण के साथ हास्य का ; हास्य और शृङ्गार के साथ करुण का; हास्य, शृङ्गार और भयानक के साथ रौद्र रस का 3 भयानक और शान्त के साथ वीर रस का; शृङ्गार, वीर, रौद्र, हास्य और शान्त के साथ भयानक रस का; वीर, शृङ्गार, रौद्र, हास्य भयानक के साथ शान्त रस का तथा शृङ्गार के साथ वीभत्स रस का विरोध रहता है। इन विरोधी रसों के साथ-साथ रहने का भी प्रकार कहा गया है। सारांश यह कि दोनों परीक्षणों से जो रस ब्यापक और उपकार्य हो उन्हें मुख्यता और जो व्याप्त और उपकार हों उन्हें गौणता देनी चाहिये। मुख्यता के अन्यान्य कारणों का यथास्थान उल्लेख हो चुका है। इस विषय में प्रायः सभी प्राच्य और पारचात्य पंडित एकमत हैं।