पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२६५

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शृङ्गार-रस-सामग्री १७६ शृङ्गार को रसराजता के कई कारण हैं। एक तो यह कि संयोग-विप्रयोग- जैसा भेद किसी अन्य रस में नहीं। दूसरा यह कि जो आलस्य, उग्रता, जुगुप्सा तथा मरण संचारी संयोग में वर्जित हैं वे भी वियोग में आ जाते हैं। फलितार्थ यह कि शृङ्गार में सभी संचारियों का चरण हो जाता है पर अन्य रसों में गिनेगिनाये संचारियों का। तीसरी बात यह कि शृङ्गार की व्यापकता इतनी है कि इसकी सीमा का कोई निर्देश नहीं कर सकता। इसीसे पाठकों और दर्शकों को जितनी अनुभूति शृङ्गार में होती है उतनी और किसी रस्त्र में नहीं होती। चौथी बात यह कि इस रस का आनंद शिक्षित-अशिक्षित, रसिक-अरसिक, सभ्य-असम्ध, नामरिक-देहाती, सहृदय-असहृदय, सभी प्रकार के मनुष्यों को प्राप्त होता है। पाँचवीं बात यह कि मनुष्येतर प्राणियों में भी रति-भाव की प्रबलता देखी जाती है और उसकी आस्वाद्यता भी कही जा सकती है। छठी बात यह कि जिस रति को शृङ्गार का स्थायी भाव कहा गया है उसका क्षेत्र व्यापक है। शृङ्गार से दाम्पत्य-विषयक जैसा रत्याविष्कार होता है वैसे ही वीर में भी पौरुष-विषयक रत्याविष्कार होता है। इस प्रकार रति उत्कट भावना का द्योतक है। हिन्दी- कवियों ने भी इसे रसराज की उपाधि दी है। मतिराम का दोहा है- जो बरनत तिय पुरुष को कविकोविद रतिभाव । तासों रीझत हैं सुकवि, सो सिंगार रसराव ॥ दूसरी छाया शृङ्गार-रस-सामग्री प्रेमियों के मन में संस्कार-रूप से वर्तमान रति या प्रेम रसावस्था को पहुँचकर जब आस्वादयोग्यता को प्राप्त करता है तब उसे शृङ्गार रस कहते हैं। शृङ्गार शब्द सार्थक है। जैसे शृङ्गो पशुओं में यौवन काल में शृङ्ग का पूर्ण उदय होता है और उनके जीवन का वसन्त-काल लक्षित होता है वैसे ही मनुष्यों में भी शृङ्ग अर्थात् मनसिज का स्पष्ट प्रादुर्भाव होता है; उनकी मिथुनविषयक चेतना पूर्णरूप से जागरित होती है। शृङ्ग शब्द के इस पिछन्ने लक्ष्यार्थ को उत्तेजित और अनुप्राणित करने की योग्यता जिस अवस्था में पायी गयी है उसको शृङ्गार कहना सर्वथा सार्थक है। १ मनोऽनुकूलेष्वर्थेषु सुखसंवेदनारिमका इच्छा रतिः।-भावप्रकाश २ शृङ्गहि मन्मथोमेदरतदागमनहेतुकः । पुरुषप्रमदाभूमिः शृङ्गार इति गीयते ।-काव्यप्रकाश