पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२६९

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विप्रलंभ शृङ्गार १८३ दोनों के पारस्परिक प्रेमानुराग रूप रति स्थायीभाव है। हर्ष, मोह, आवेग आदि संचारी हैं। पारस्परिक दर्शन आदि से संभोग शृङ्गार है। इसमें काव्यगत सामग्री और रसिकगत सामग्री प्रायः एक प्रकार की है। दोउ की रुचि भावे दुऊ के हिये दोउ के गुण दोष दोऊ के सुहात हैं। दोउ पै दोऊ जीते बिकाने रहे दोउ सो मिलि दोउन ही में समात है। 'चरंजीवी' इतै दिन दूक ही ते दोउ की छवि देखि दोऊ बलि जात हैं। दिन रैन दोऊ के विलोके दोऊ पय तौन दोऊन के नैन अघात हैं। प्रायः इसकी भी सभी बातें वैसी ही है। चौथी छाया विप्रलंभ शृङ्गार वियोगावस्था में भी जहाँ नायक-नायिका का पारस्परिक प्रेम हो, वहाँ विप्रलंभ शृङ्गार होता है। मैं निज अलिन्द में खड़ी थी सखि एक रात, रिमझिम बूदें पड़ती थीं घटा छाई थी। गमक रही थी केतकी की गंध चारों ओर, झिल्ली झनकार यही मेरे मन भाई थी। करने लगी मैं अनुकरण स्वन पुरों से, चंचला थी चमकी घनाली घहराई थी। चौंक देखा मैंने चुप कोने में खड़े थे प्रिय, माई मुखलज्जा उसी छाती में छिपाई थी। गुप्तजी इसमें उर्मिला बालबन विभाव है । उद्दीपन हैं बूंदों का पड़ना, घर का छाना, फूल का ममकना, झिल्लियो का झनकारना आदि । छाती में मुंह छिपाना आदि अनुभाव हैं । लज्जा, स्मृति, हर्ष, विवोध आदि संचारी भाव है। इन भावों से परिपुष्ट रति स्थायी भाव विप्रलंभ शृङ्गार रस में परिणत होकर ध्वनित होता है। यहाँ पूर्वानुभूत सुखोपभोग की स्मृति का वर्णन रहने पर भी उसकी प्रधानता सिद्ध न होने से भावध्वनि नहीं है। इस कविता में रसिकगत सामग्री का स्पष्ट उल्लेख नहीं है; पर उनका अध्याहार कर लिया जाता है। जैसे, (१) पालवन इसमें लक्ष्मण हैं, (२) उद्दीपन है अँधेरे में उनका चुपचाप खड़ा होकर उर्मिला का विलास देखना । इसमें बूंदो का पड़ना आदि को भी उद्दीपन में सम्मिलित किया जा सकता है, (३) अनुभाव है