पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विप्रलभ शृगार १८५ काम हु ते अभिराम महा 'मतिराम' हिये निहचे करि लेखे। ते बरन्यो निज बैनन सौ सखि, मै निज नैनन सों मनो देखे । इसमें सखी के वर्णन से नायिका को श्रवण-दर्शन हुआ। २ मान- रे मन आज परीक्षा तेरी विनती करती हूँ मै तुम्हसे बात न बिगड़े मेरी यदि वे चल आये है इतना तो दो पद उनको है कितना? क्या भारी वह मुझको जितना? पीठ उन्होंने फेरी।- गुप्त इसमें गोपा बालबन, पीठ फेरना उद्दीपन, विनती करना आदि अनुभाव और अमषं आदि संचारी हैं । गोपा का यह प्रणवमान है। ठाढ़िहुते कहु मोहन मोहिनी आह तितै ललिता दरसानी हेरि तिरीछे तिया तन माधव माधवै हेरि तिया मुसकानी । रूठि रही इमि देखि कै नैन कछू कहि बैन बहू सतरानी। यों नंदराय जू भामिन के उर आइगो मान लगालगी जानी। इसमें प्रत्यक्ष दर्शन-जनित ईर्ष्यामान है। ईामान के लघुमान, मध्यममान और गुरुमान तीन भेद हैं। ३ प्रयास इसके तीन कारण माने गये हैं- शाप, भय और कार्य । कार्यवश प्रवास के भूत, भविष्य और वर्तमान नामक तीन भेद होते हैं। कुछ उदाहरण दिये जाते हैं। पर कारज देह के धारे फिरो परजन्य यथारथ है दरसो। निधि नीर सुधा के समान करो सब ही विधि सज्जनता सरसो। 'घन आनंद' जीवनदायक हो छु मेरियो पीर हिये परसो। कबहूँ या बिसासी सुजान के आँगन मो असुवान को लै बरसो। इस प्रवास का भूतकाल से सम्बन्ध होने के कारण भूत प्रवास है। ४ करुण- करुण से करुण विप्रलम्भ शृङ्गार का अभिप्राय है। कालिय काल महा विपज्वाल जहाँ जल ज्वाल जर रजनी दिन करध के अध के उबरै नहिं जाको बयारि बरै तह ज्योतिन । ता फनि की फन-फॉसिन में फदि जाय फस्यो उकस्यों न अजौ छिन । हा ब्रजनाथ सनाथ करो हम होती हैं नाथ अनाथ तुम्हें बिन ।-देव यहां कृष्ण से निराश होकर गोपियों की जो उक्ति है उसमें करुण विप्रलम्भ