पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२८

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१५ आवश्यकता थी कि 'इन संचारी-व्यभिचारी भावो को रटा-रटाकर हम अपने विद्यार्थियो को साहित्य की प्रगति से दूर रखने का विफल प्रयास कर रहे है ।' ऐसा लिखनेवालो का ज्ञान तो वस इतना ही है कि वे साधारणीकरण को 'कला-कला के लिए' का सिद्धान्त मानते है। संचारी-व्यभिचारी के रटने से तो कुछ साहित्यिक जान भी होता है; पर आधुनिक पुस्तको के पढ़ने से साहित्य का वह ज्ञान भी नहीं होता । इसमे सन्देह नहीं कि इन ग्रन्थो मे साहित्य की मार्मिक विवेचना की शक्ति प्राप्त होती है। तात्त्विक ज्ञान को अपेक्षा इसका महत्त्व कम है। शास्त्रीय विद्या से तत्त्व-ज्ञान तथा विवेचनात्मक कान दोनो ही उपलब्ध होते है। प्राचीन प्राचार्यों ने जो बाते कही है, पाश्चात्य आचार्य उसके विरोधी नहीं है, बल्कि वे उसके समर्थक है । एक उदाहरण ले- ध्वन्यालोककार ने लिखा है कि "कथा के आश्रयभून रामायण आदि ग्रन्थ सिद्धरस के नाम से विख्यात है। उनमे वणित विषयो मे स्वेच्छा से रस-विरोधिनी कोई कल्पना न करनी चाहिये ।"५ ड्रडले इसी बात को कहता है कि "कोई कलाकार यदि यथार्थता मे कोई परिवर्तन ( वह सुप्रसिद्ध दृश्य का हो, वणन का हो या ऐतिहासिक चरित्र-तथ्य का हो ) वहाँ तक करता है कि उसकी रचना हमारे सुपरिचित विचारो को धक्का दे तो वह गलती करता है ।"२ ___ साराश यह कि केवल क्षोद-क्षेम करने या छीटे उडाने से काम न चलेगा। अरस्तू के पोयेटिक्स पर जैसी बूचर की टीका है वैसी ही संस्कृत के साहित्य-ग्रन्थो पर टीका होनी चाहिये, नयी-नयी व्याख्याएँ की जानी चाहिये। इससे इनकी उपयोगिता वढायी जा सकती है। ऐसा होने से आज-जैसे अधकचरे समालोचको का अवतार न होगा। प्राचीन आचार्यों की अवहेला से प्रगति नहीं, अधोगति की ही संभावना है। कवि कवि साधारण व्यक्ति नहो होता । आज कवियो की भरमार है; पर सभी कवित्व-शक्ति-शाली है, कहा नहीं जा सकता। दर्पणकार कहते है कि "एक तो मनुष्य-जन्म होना दुर्लभ है ; दूसरे, उसमे विद्या का होना दुर्लभ है। कविता करना १. सन्ति सिद्धरसप्रख्या ये च रामायणादयः । कथाश्रया न तैर्योज्या स्वेच्छा रसविरोधिनी । - ध्वन्यालोक २. If an artist alters a reelity 'e.g. a well known scene or historical character) so much that his product clashes violently with our familiar ideas he may be making a mistake. -Oxford Lectures On Poetry.