पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६४ काव्यदर्पण युद्ध वीर- साहस हो खोलो सींकड़ों को तलवार दो। सामने खड़े हो देखो क्षण भर में बाजी लौट आती है महान आर्य देश की । मान नावें पंच हम पावभर लोहे को। दे दो शेष निर्णय का भार तलवार को । एक बार पीसकर दॉत महायोद्धा ने मारा झटका तो छिन-भिन्न हो के शृङ्खला छिटल गयी यों मानों ओले पड़े नम से। गरजा सरोष महाबाह बल विक्रमी तोड़ डाला बेड़ियों को खींच क्षण भर में--प्रार्यावर्त इसमें पृथ्वीराज पालंबन और उद्दीपन हैं गोरी का उत्पीड़न अनुभाव हैं। पृथ्वीराज को ये उक्तियों और उनके कार्य तथा स्मृति, गवं आदि संचारी हैं। बल के उमंड भुजदंड मेरे फरकत कठिन कोर बैंच मेल्यों चहै कान ते । चाउ अति चित्त में चढ्यों ही रहे युद्धहित मूटै कब रावन जु बीसहु भुजान ते । पवाल' कवि मेरे इन हत्थन को सीघ्रपनो देखेंगे दनुज जुत्थ गुत्थित दिसान है। वसमत्व कहा, होय जो पै सो सहनलक्ष, कोटि-कोटि मत्थन को काटौं एक बान तें। लक्ष्मणजी की इस उक्ति में रावण बालंबन, जानकी-हरण उद्दीपन, लक्ष्मण के ये वाक्य अनुभाव और गवं, औत्सुक्य श्रादि सँचारी हैं। निकसत म्यान ते मयूखै प्रलै भानु कैसी फारे तमतोम से गयंदन के जाल को। लागति लपटि कंठ बैरिन के नागिन-सी। ____ह रिझावै दै दै मुण्डनि के माल को। लाल छितिपाल छत्रसाल महाबाहु बलो, कहाँ लौ बखान करौ तेरी करबाल को। प्रति भट कटक कटीले केते काटि काटि, , कालिका-सी किलक कलेऊ देति काल को। भूषण इसमें बच पाबंबन, शत्रु के कार्य उद्दीपन, तलवार के कार्य अवुभाव और गर्व, आवेग, औरसुस्व प्रादि संचारी हैं। ।