पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२८१

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वीर-रस-सामग्री १६५ धर्मवीर- रहते हुए तुम-सा सहायक प्रण हुआ पूरा नहीं, इससे मुझे है जान पड़ता भाग्य-बल ही सब कहीं। जब कर अनल में दूसरा प्रण पालता हूँ मैं अभी अच्युत युधिष्ठिर आदि का अब भार है तुमपर सभी । गुप्त इसमें अर्जुन श्रालंबन, प्रण का पूरा न होना उद्दीपन, अर्जुन का प्रस पालने को उद्यत होना अनुभाव और कृति, मति अादि संचारी भाव हैं। इनसे यहाँ धर्म-वीरता को व्यञ्जना है। दयावीर पापी अजामिल पार कियो जेहि नाम लियो सुत ही को नरायन । त्यों 'पदमार' लात लगे पर विग्रह के पग चौगुने चायन ॥ को अस पीनदयाल भयो दशरथ के लाल-से सूधे सुभायम । दौरे पर उबारिष को प्रभु वाहन छाडि उपाहन पायन । इसमें दया का पात्र गयंद बालंबन, गयंद की दशा उद्दीपन, गयंद को उपराने के लिए दौड़ पड़ना अनुभाव और वृति, आवेग, हर्ष आदि संचारी हैं। दानवीर हाथ गयो प्रभु को कमला कहे नाथ कहा तुमने चितषारी। तंडल खाय मुठी दुइ दोन कियो तुमने दुइ लोक बिहारी॥ खाय मुठी तिसरी अब नाथ कहा निज वास की आस बिचारी। रंकहि आपु समान कियो तुम चाहत आपुहिं होन भिखारी ।।-ज० दाख इसमें सुदामा बालंबन, मुदामा को दीन दशा उद्दीपन, दो मुट्ठी चावल खाकर दो लोक देना आदि अनुभाव और हर्ष, गवं, मति आदि संचारी हैं। इनते दानवीरता की न्यञ्जना होती है। जो सम्पति शिव रावनहिं दीन दिये दस माय । सो संपदा विभीखनहिं सकुचि दोन्ह रघुनाथ ॥-तुलसी यहाँ विभीषण आलंबन, शिव के दान का स्मरण उद्दीपन, राम का दान देना तथा उसमें अपने बड़प्पन के अनुरूप तुच्छता का अनुभव करना, श्रतएव संकोच होना अनुभाव और स्मृति, वृति, गर्व, औत्सुक्य आदि संचारी हैं। इनसे व्यायी भाव परिपुष्ट होता है, जिससे दानवीर को ध्वनि होती है।