पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२९९

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काव्यदर्पण ठाकुर हा आप हम चाकर तिहारे सवा, भापूको विहाय कहीं मोको और कौन ठाव । गज की गुहार सुनि धाये निज लोक छाडि 'चचा' की गुहार सुनि भयो कहाँ फोल पाव । गनिका अजामिल के औगुन गन्यो न नाथ, लाखन उबारि अब काँखत हमारे दाँव । इसमें चाचा के नाम पालम्बन, औगुन न गिनना आदि उद्दीपन, लाखों का उधारना अनुभाव और दोनता, विषाद आदि संचारी हैं। गोपी गुपाल कौं बालिका के वृषभानु के भौन सुभाइ गई। 'उजियारे बिलोकि-बिलोकि तहाँ हरि राधिका पास लिवाई गई। उति हेलि मिलो या सहेलि सो यों कहि कंठ से कंठ लगाइ गई। भरि भेटत अंक निसंक उन्हें वे मयंकमुखी मुसुकाइ गई। सखियाँ गुपाल को बालिका बनाकर लायीं और राधिका उन्हें बालिका समझ गले-गले मिलीं। इसपर सखियाँ हँस पड़ीं। उनको हंसती देख राधाकृष्ण भी अपनी हसी न रोक सके। यही चमत्कार है और हास्यरस की व्यञ्जना भी। यहां का स्वशब्द-पाच्य मुस्कुराना सखीपरक है। राधाकृष्ण का हास्य तो व्यग्य ही है। वहाँ परनिष्ठ हास्य है। परिहास रूप में भी कविता का अनुकरण ( Parody ) होने लगा है। जैसे, घन घमंड नम गर्जत घोरा, ठका हीन कलपत मन मोरा। वामिनि बमकि रही धनमांहीं, जिमि लीडर की मति थिर नाहीं ॥ -ईश्वरीप्रसाद शर्मा हास्यरत्र मानसिक गम्भीरता को सरलता में परिणत कर उत्फुल्लता क्षा देता है। उन्नीसवीं छाया वीभत्स रस __ मैव रसों में वीभत्स रस की गणना बहुतों को अमान्य है; क्योंकि यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वीभत्स रस को लेकर या उसको प्रधानता देकर मिली काव्य को रचना नही को गयो। अन्य रसों को भांति यह उतना महदयापक नहीं समझा गया, किन्तु कितनों का कहना है कि अनेक संचारियों अपेक्षा इसके आस्वाद को उत्कटता बढ़ी-चढ़ी है और इसकी विचित्रता भी