पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३०४

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इक्कीसवीं छाया शांत रस भरत ने 'अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृता' कहकर शांत रस को पृथक् कर दिया । इसका कारण यह है कि प्रथम-प्रथम जो काव्य-चर्चा प्रारम्भ हुई, वह नाटक को लेकर हो । शांत रस के अभिनय में निष्क्रियता उत्पन्न हो जाती है। अभिनेता शांत रस का जब अनुभव करने लगता है, नट-चेष्टा बन्द-सी हो जाती है। इस रस में मन का कोई विकार नहीं रह जाता-नक्षोभ न उग। चित्त में शांति आ जाती है। इसीसे किसी ने शांत को रस ही न माना। शम को भी किसी किसी ने रस माना है; पर नाटक में इसकी पुष्टि नहीं होती। यह कहना ठीक नहीं। नाटक-सिनेमा में शांत रस के अच्छे-से-अच्छे अभिनय दिखाये जाते हैं। चित्त की शांति में भी मानसिक क्रियाएं बंद नहीं होती। ब्रह्मज्ञानी, योगो समाधि की अवस्था में निर्व्यापार हो जाते हैं ; पर निर्व्यापार को भी यथार्थता प्रदर्शन योग्य होती है। क्या शंकर, शुक्र, ध्रुव, प्रह्लाद आदि को तपस्या का अभिनय यथार्थ नहीं होता १ नट तो व्यक्ति-विशेष की अवस्था-विशेष का अभिनय करता है। उस अवस्था का वह उपभोक्ता नहीं बन जाता। रसोपभोक्ता तो सहृदय दर्शक ही होते हैं। ____ कोई यह कहे कि शांत रस सर्वजन-सुलभ नहीं। इससे उसका निराकरण कर देना चाहिये । यह उचित नहीं। यदि ईश्वर सर्वजन-सुलभ नहीं तो क्या उसकी सत्ता संशयास्पद मान ली जायगो १ शुकदेवजो ने रंभा का तिरस्कार कर दिया तो शृङ्गार रस की उपेक्षा कर देनी चाहिये ? कितनों का कहना है कि भरत ने जो शांत को रस न माना उसका कारण यह है कि भाव में निर्वेद की गणना कर दी और उसे स्थायी भाव न माना। इसीसे उसे रसत्व प्राप्त नहीं हुआ। मम्मट आदि अनेक प्राचार्यों ने 'निवेद' को ही शांतरस का स्थायी भाव माना है। उन्होंने इसके दो रूप माने हैं । विषयों में तत्त्वज्ञान से जहाँ निर्वेद उत्पन्न होता है वहां स्थायी होता है और जहाँ इष्ट-वियोग तथा अनिष्ट-प्राप्ति से निर्वेद उत्पन्न होता है वहां संचारी होता है। भरत ने जो विभाव दिये हैं उनसे भी यही विदित १ शांतस्य निविकारत्वात् न शांतं मेनिरे रसम् । २ शममपि केचित्प्राहुः पुष्टिर्नाटयेषु नेतस्य । -द० रू० । यदि नाम सर्वजनानुभवगोचरता तस्य मारित नैतावतासौ "प्रतिक्षेप्तुं शक्यः । -ध्वन्यालोक ४ स्थायी स्याद्विषयेष्वेव तत्त्वज्ञानोद्भवो यदि । इष्टनिष्ट वियोगाप्ति-कृतस्तु व्यभिवायसो । -संगीत रत्नाकर