पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३०५

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काव्यदपण २२० होता है कि रोग, शोक, दरिद्रता, अपमान-जैसे क्षुद्र विभावों द्वारा उत्पन्न निवेद संचारी हो होता है। शान्त रस के स्थायी एक नहीं, अनेक माने गये हैं। किसी ने विस्मय-शम को माना है। दूसरे ने उत्साह को माना है । किसी ने जुगुप्ता को और किसी ने सभी को स्थायी माना है । किन्तु, तत्वज्ञानोत्पन्न निर्वेद ही इसका स्थायी है ।' भोज ने धृति को स्थायी भाव माना है। विस्मय तो सभी रसों का संचारी है। उसको एक स्थान पर संकुचित कर लेना ठीक नहीं। शम का नाम ही एक प्रकार से निर्वेद है। शम को एक भाव मान लेने से भरत के माने हुए भावों की ४६ संख्या में वृद्धि हो जायगी। इससे शम स्थायी-भावात्मक शान्त नहीं है । धृति आदि में विषयोपभोग विद्यमान रहता है, इससे वह शान्त का स्थायो कैसे हो सकता है । जुगुप्सा मे चित्त को ग्लानि हो ग्लानि है । जुगुप्सा-जनित त्याग त्याग नहीं। इससे इसे शान्त रस के स्थायी होने की योग्यता प्राप्त नहीं हो सकती। इससे निर्वेद ही को यह गौरब प्राप्त है। आनन्दवर्द्धन शान्त रस को तो मानते हैं ; पर उसका स्थायी भाव 'तृष्णाक्षय' मानते हैं । फिर भी यह कहा जा सकता है कि तृष्णाक्षय-रूप ही तो शम या निवेद है। निर्वेद तत्त्वज्ञानमूलक है। अतः, वह तत्त्वज्ञान का विभाव है । अतः, मोक्ष का कारण निर्वेद नहीं, तत्त्वज्ञान ही है। इससे तत्त्वज्ञान में शान्त रस के स्थायी होने की योग्यता है। अतः, अभिनव गुप्त कहते हैं कि शान्त का स्थायी भाव तत्त्वज्ञान है और तत्त्वज्ञान का अभिप्राय आत्मज्ञान है । वही मोक्ष का साधन है। किन्तु भरत से लेकर पण्डितराज तक प्रायः सबोने निर्वेद को हौ स्थायी माना है । कारण यह कि निर्वेद से भी शान्ति की प्राप्ति होती है और उससे शान्त रस पुष्ट होता है। भरत ने शान्त रस का यह रुप खड़ा किया-जहाँ न दुःख है, न सुख है, न द्वेष है, न मात्सर्य है और जहां पर सब प्राणियों में सम भाव है वहाँ शान्त रस होता है। यदि शान्त का ऐसा रूप माना जाय तो मुक्ति-दशा में ही परमात्मा- स्वरूप शान्त रस हो सकता है। उस समय विभाव आदि का ज्ञान होना संभव नहीं १ तत्र शान्तस्य स्थायी विस्मय-शम इति कैश्चित्पठितः । उत्साह एवास्य स्थावी इत्यन्ये । जुगुप्सेति कश्चित् सर्व इत्येके | तत्त्वज्ञानजो निवेदोऽत्य स्थायी !-नाट्यशास्त्र २ शान्तश्च तृष्णाक्षयसखस्य यः परिपोषस्तल्लक्षणो रसः प्रतीयक एव ।- ध्यन्यालोक ३छ तत्त्वज्ञानमेव तावन्मोक्षसाधनमिति तस्यैव मोक्षे स्थायिठा युक्ता । तत्वशान नाम । आत्मज्ञानमेव !-नाट्य शास्त्र , न यत्र दुःखं सुख न देषो नापि मत्सरः। ततः सर्वेषु भूतेषु स शान्तः प्रथितो रसः ।