पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३०६

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शान्तरस सामग्री २२१ और इनके बिना शान्त रस को सिद्धि ही कैसे हो सकती है ? इसका उत्तर यह है कि युक्तदशा अर्थात् योगी के ध्यानमग्न होने को अवस्था, वियुक्त अर्थात् योगो को योगसिद्धियाँ प्राप्त हो जाने की अवस्था और युक्त-वियुक्त अर्थात् योगी के अतीन्द्रिय विषयों के ज्ञान की अवस्था में जो शम रहता है वही शान्त रस का स्थायी भाव है। मोक्ष-दशा का शम यहाँ अभीष्ट नहीं है। उक्त अभीष्ट शम में संचारी आदि का होना संभव है। शान्तरस में सुख का जो अभाव कहा गया है वह विषय-सुख का अभाव है। उस समय किसी प्रकार का सुख होता हो नहीं सो बात नहीं है । तृष्णा-क्षय का जो सुख है वह सर्वोपरि है, जैसा कहा गया है । संसार में जो काम-सुख-विषयजन्य सुख है और जो स्वर्ग आदि का दिव्य महासुख है, ये सब सुख मिलकर भी तृष्णाक्षय- शान्ति से उत्पन्न सुख के सोलहवें हिस्से को भी बराबरी नहीं कर सकते २ । अन्यान्य रसों में लौकिक विषयो को लेकर अनुभूति होती है और वह नित्य व्यवहार-मूलक होती है ; पर शान्त रस की अनुभूति उनसे निराली होती है और वह नित्य-व्यवहार-मूलक नही होती । अन्य रस लौकिक होने से प्रवृत्तिमूलक और शान्त रस पारलौकिक होने से निवृत्तिमूलक हैं। प्रवृत्ति का विश्लेषण जितना महज है उतना निवृत्ति का नहीं। इसके दार्शनिक विचार बड़े ही सूक्ष्म और बोधगम्य हैं। आधुनिक युग अशान्ति को ओर ले जाता है और चाहता है परलोक को भुला देना । देहात्मवाद परमात्मा की ओर प्रवृत्त होने नहीं देता। आज धर्मप्राण भारत को कमयोग के साथ शान्त रस की भी आवश्यकता है। बाइसवी छाया शान्त-रस-सामग्री संसार से अत्यन्त निर्वेद होने पर या तत्त्व-ज्ञान-द्वारा वैराग्य का उत्कर्ष होने पर शान्त रस की प्रतीति होती है। बालंबन-संसार को प्रतारता का बोध या परमात्मतत्त्व का ज्ञान । उद्दीपन-सज्जनों का सत्संग, तीर्थाटन, दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र, पुराण का अध्ययन, सांसारिक झझटें आदि । १ युक्-वियुक्त दशायामवस्थितो बः शमः सएव यतः। रसतामेति तदस्मिन्सं- चादः स्थितिश्च न विरुखा। -साहित्यदर्पण बच्च काममुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् । तृष्णाक्षयसुखस्येते नाईतः षोड़शी कलाम् । , --ध्वन्यालोक