पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२४ काव्यदर्पण एक को रस माना जाय और दूसरे को भाव । इसके उत्तर में वे प्राचीन श्राचार्यों की परंपरा की दुहाई देते हैं, जिससे स्पष्ट है कि उनसे उत्तर बन न पड़ा । हमारा समाधान यह है कि नायिकानाय क-विषयक रति उभयगत वा उभयप्रवत्तित होने से जैसी परिपुष्ट होती है पैसो भगवद्भक्ति नहीं; क्योंकि वह एकांगी होती है । अन्यान्य रसों में भी यह उभयात्मकता परोक्ष वा अपरोक्ष रूप से विद्यमान है। इसकी सिद्धि के लिए यहां शास्त्रार्थ की आवश्यकता नहीं। किन्तु, यह कोई ऐसा कारण नहीं कि भक्तिरस रस न माना जाय । कितनों का कहना है कि भक्ति, शान्ति आदि मूलभावना नहीं है। क्योंकि छोटे-छोटे बच्चों में ये भाव नहीं पाये जाते। इससे ये रस-श्रेणी में नहीं जा सकते। दूसरी बात यह कि इनकी व्यापकता नहीं है ; गिने-गिनाये ही व्यक्ति हैं, जिनमें भक्तिभावना हो। इससे भक्ति स्वतन्त्र रस की योग्यता नहीं रखती। किन्तु, ये तर्क निःसार है। भावनाओं की मूलभूतता के संबंध में मनोवैज्ञानिक एकमत नहीं हैं। 'मेग्डुगल' के मत से, भय, जुगुप्सा, विस्मय, क्रोध, वात्सल्य, लज्जा और आत्मप्रौढि ये ही मुख्य भावनाएँ है। 'जेम्स' स्पर्द्धा को और 'रेनो' धर्मभावना को मूलभूत मानते हैं । अतः, रसत्व की योग्यता का कारण मूलभूतता नही है। व्यापकता की दृष्टि से भी यह रति प्रोति से हीन नहीं कही जा सकती। कुछ विरागी संसारासक्ति से परे रहनेवाले हैं। इससे रति को मर्यादा न्यून नहीं होती और न कुछ विलासियों के भक्तिशून्य होने से भक्ति का महत्त्व नष्ट होता। इससे यह कहा जा सकता है कि भक्ति एक प्रबल भावना है। इसको आस्वाद्यता और उत्कृष्टता किसी प्रधान रस से कम नहीं। ईश्वर में परम अनुरक्ति को भक्ति' कहते हैं। यह भक्ति का लक्षण है। ईश्वरपरायण महापुरुषों के अवतार तथा साधु-सन्तों की मधुर वाणियों ने भक्ति की वह गंगा बहा दी है कि उसमें गोता लगानेवाले सहृदय भक्ति को सरसता से कैसे विमुख हो सकते हैं ! रामायण और भागवत की कथाओं ने भक्तिरस से भारत को प्लावित कर दिया है। श्री मधुसूदन सरस्वती और श्री रूप गोस्वामी ने इसको साहित्यशास्त्र का रूप दिया। उन्होंने सब रसों को प्रोति वा भक्ति के ही रूप कहा और उनको उज्ज्वल रस के नाम से संबोधित किया। वैष्णवों ने शान्त, दास्य- सख्य, वात्सल्य, मधुर ( शृङ्गार ) को मुख्य और शेष को गौण माना। यहीं तक नहीं, इन्हें भी यथोचित सामग्री से वैष्णव धर्म की भक्ति का ही रूप दे डाला। भक्तिरस पुरषार्थोपयोगी तो है ही, अधिक मनोरंजक भी है। व्यापकता और उत्कटता की दृष्टि से शान्तरस से भक्तिरस चढ़ा-बढ़ा है। यह भक्तिरस सामान्य १ सा परानुरक्ति ईश्वरे।-शारिढल्यसूत्र . सात मस्मिन् परमप्रेमका!-ना: म. सूत्र,